सम्मलेन पत्रिका- 2009 | Sammelan Patrika -2009
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
104
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ & ।
तिभ्बत जें तीसरो बौर प्रवेद ঃ १५
जीर एक दूसरा गृहस्य । कमी कमी दोनो गृहस्य भौ दिखाई पडते हं, यदि कोर मंत्रियों के अनु-
कूल भिक्ष् नही मिला। ओेनम में दो जोंड्पुन थे, जिनमे एक जोड्-शर (पूवं बाला जङ्) भीर
दूसरा जोहूनुब (परिचमवाला जोड्पुन ) कहा जाता था । हम २४ अप्रेल को १० बजे जोंड्-
नृब के पास गये । कितनी हौ देर तक बातचीत होती रही । जौङ्पुन लोग सरकारी काम करते
हुए अपना व्यापार भी किया करते हें, जिसके लिए उनके पास अपने घोड़े खच्चर होते है 1 हम
तो इस खयाल से गये कि उनसे किराये पर घोड़ा मांगेंगे, लेकिन कुछ देर बात करने के बाद उन्होंने
कहा--नंपाली छोड़कर यहां से आगे किसी को जाने देना मना हैं। मेने इस बात की ओर श्याल
नहीं किया था। समभता था कि में दो बार तिब्बत हो आया हूं और <हाशा के बड़े बड़े आदमियो से
मेरा परिचय है, साथ ही यह जोडपोन अभी अभी धर्मा साह के घर पर मिल चुका है इसलिए
वह क्यो रुकावट डालेगा ? दरअसल वह रुकावट पेंदा भी नही करना चाहता था, छेकिन सारी
जिम्मेवारी अपने ऊपर लेना नही चाहता था इसलिए उसने कहा कि आप मेरे साथी जोंड्शर से
भी आजा ले लें। उसने यह भी कहा कि हम स-स्क्या तक के लिए घोड़ा भी दे देंगे। में बहा से
जोङ्-शर के पास गथा । वह उस वक्त भोजन कर रहा था। जोड्पोनों की तनख्वाह २०-२५ रुपये
से ज्यादा नही होती होगी, लेकिन वह अपने जिले के बादशाह होते है, ल्हाशा दूर होने से उनके
न्याय और अन्याय की शिकायत भी कोई नहीं कर सकता और तिब्जत में कोई लिखित कानून
हैं नही,सब फँंसला अपनी विवेक वृद्धि से ही करना पड़ता हैं। हरेक मुकदमे में बादी और प्रतिवादी
दोनो को जोडपोन की पूजा करनी पडती हूं, मांस मक्खन और अनाज तो बिना पैसे का उनके
पास भरा रहता हूँ । अनम अब भी कम से कम नेपाल से आनेवाले माल की व्यापारिक मण्डी
है। यहां से चाबल, चूरा और कितनी ही चीजें तिब्बत जाती हे। इस व्यापार में जोडपोन लोगों
का भी हाथ होता है जिससे उनको काफी आमदनी होती है, इसलिए २०-२५ रुपया मासिक पाने-
बाले आदमी की स्त्रिया चीनी रेशम और मोती-मूगों से लदी हों तो आश्चर्य क्या ? उनका रोब-
दाब भी किसी बादशाह से कम नही होता। मुझे पहिले तो बंठने के लिए कहा गया, इसके बाद
कल आने का हुक्म हुआ। मेरी यात्रा फिर कुछ संदिग्ध सी हो गई। जोद्ूशर के बारे में लोग
कह रहे थे कि ल्हासा का आदमी हे और बड़े कड़े मिजाज का है ।
अगले दिन (२५ अप्रैल) को फिर १० बजे जोड़ शर के दरबार में गये । अपनी छपी
हुई पुस्तकं और लाशा के कई मित्रों के चित्रों को दिखलाकर यह विश्वास विलाया कि दो बार हम
राजधानी हो आये है, और यह भी बतलाया कि हमारे जाने की मंशा है प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों का
उद्धार । अन्त मे जोद्-शर ने कहा--
वसे तो आचारा (भारतीय) साधू आदि को हम ऊपर नहीं जाने देते किन्तु आप धमं काथं
के लिए जा रहे हूँ, इसलिए हम दोनों जोदपोन बात करके सब वन्दोबस्त कर दंगे ।
खैर, निराश होने की बात नहीं मालूम हुई | भारतीयों के लिए इतनी कड़ाई होने का
कारण भी है। पिछली शताब्दी में जब कि अंग्रेजों की इच्छा भारत के उतरी सीमान्त को पार
करके और आगे हाथ मारने की थी उनके गुप्तचर बनकर कितने हौ मारतीय चिम्बत गये थे
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