कनुप्रिया | Kanupriya

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Kanupriya by धर्मवीर भारती - Dharmvir Bharati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पाँचवाँ गीत यह जो मैं गुहकाज से अलसाकर अक्सर इधर चली आती हूँ और कदम्ब की छाँह में शिथिल अस्तव्यस्त अनमनी-सी पडी रहती हूँ यह पछतावा अब मुझे हर क्षण सालता रहता है कि मैं उस रास की रात तुम्हारे पास से लौट क्यों आयी ? जो चरण तुम्हारे वेगवादन की लय पर तुम्हारे नील जलज तन की परिक्रमा देकर नाचते रहे वे फिर घर की ओर उठ कंसे पाये मै उस दिन लौटी क्यों कण-कण अपने को तुम्हें देकर रीत क्यों नही गयी ? तुमने तो उस रास की रात जिसे अंशत भी आत्मसात्‌ किया उसे सम्पूर्ण बनाकर वापस अपने-अपने घर भेज दिया पर हाय वह सम्पुर्णता तो इस जिस्म के एक-एक कण में वराबर टीसती रहती है तुम्हारे लिए कैसे हो जी तुम ? .१७ / पुर्वराग




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