भारतीय ज्ञानपीठ मूर्तिदेव जैन ग्रन्थमाला | Bhartiya Gyanpeeth Murtidev Jain Granthmala

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Bhartiya Gyanpeeth Murtidev Jain Granthmala  by कैलाशचंद्र शास्त्री - Kailashchandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावेन - 8 ` . पन्ने ४८ हँ 1 चत्ता, कडवक संख्या और समाप्ति वतानेके लिए खुरः स्याहीका प्रयोग है। लिखावट स्वच्छ . और स्पष्ट । सम्पादकके लिए उपलब्ध प्रतियों में यह सबसे बादकी प्रति ह । ५ श्रीपाख्चरित कथाकी परम्परां श्रीपाल की कथा 'सिद्धचक्र विधान” या “नवपद मण्डल'की पूजातिधिकौ फलश्रृतिसे सम्बद्ध हं । ` श्रीपाकुपर आधारित पहली रचना प्राकृतमें 'श्रीपाल चरित्र है । डॉ. हीरालाल जैनने लिखा है--- रत्नशेखर सूरि कृत “श्रीपाल चरित्र' में १३४२ गाथाएँ हैं, ,जिसका- प्रथम संकलन -वजसेनके पट्टशषिष्य प्रभु हेमतिकक सूरिने किया और उनके शिष्य हेमचन्द्र सावुने वि, सं. १४२८.( ई. १३१७ ) में इसे लिपिवद्ध किया । यह कथा 'सिद्धचक्र विवान' का माहात््य प्रंकट करनेके लिए लिखी गयी है । उज्जैनकी राजकुमारीने अपने पिताकी दी हुई समस्याकी पृतिसें अपना यह भाव प्रकट किया कि प्रत्येकको अपने पुण्य-पापके अनुसार सुख-दुख प्राप्त होता है । पिताने इमे अपने प्रति कृतघ्नताका माव समज्ञा और क्रुद्ध होकर मयनासुन्दरीका विवाह श्रीपाल नामके कुष्ट रोगीसे कर दिया । मयनासुन्दरीने अपनी पतिभक्ति और सिद्धपूजाके प्रभावसे उसे अच्छा कर लिया । श्रीपालते नाना देझ्षोंका भ्रमण किया तथा खूब वन मौर यडा कमाया । ` ग्रन्थके वीच~वीचमे मनेक , अपश्रंश पद्य भी आये हँ गौर नाना छन्दोम स्तुतिर्या निवड हैं.1. रचना आदिसे अन्त तक रोचक है । इसके बाद अपश्रंशमें दो (सिर्विल चरिउ' उपलब्ध हैं । एक कवि रइव्‌ कृत, जिसका सम्यादन डॉ राजाराम जन, जारा कर्‌ चुके हैं और जो शीत्र प्रकाश्य हैं । दूसरा पं. नरसेनका । रइवृका समय वि, सं. १४५०-१५३६ ( ई, १३९३-१४७९ ) है । निर्चित ही नरसेन ,उसके वादके हैँ । श्रीपाल रास गुजराती भापामें: है | प्रारम्भमें छिखा है -- 'श्रीपालराजान: रास: 1 इसकी चौथी . आवृत्ति अक्तूबर १९१० में हुई थी। प्रकाशक हैं भीमसिह माणक -- ---- 777 माण्डवी शाकगली मब्ये । इसमें:कुछ चार खण्ड और ४१ छाले हैं। पहलेमें ११, दूसरेमें ८, .तीसरेमें ८ और चौथेमें १४ । इसके मृल रचयिता हैं महोपाध्याय श्री कीतिविजय गणिके शिष्य श्री विनय विजय. गणि उपाध्याय । 'उसीके आधारपर यह “श्रीपाकरू रास” रचा गया | यह वंस्तुत: श्री विनय. विजय कविके प्राकृतप्रवन्ध का गुजराती अनुवादं हं । प्रारम्भने छिखा ह-- “श्री नवपद महिमा वर्णने श्रीपालराजानों रास: ॥” स्व० नाथूराम जी प्रेमीनेदो श्रीपाल चरसि््ोका उल्लेख किया दह 1 भट्टारक मल्लिभूषणके शिष्य ' ब्र. नेभिदत्तते वि. सं. १५८५ में श्रीपार चरिजकी रचना की थी । दूसरे, भदटरारक वादिचन्द्रने वि. सं. १६५१ श्रीपार आख्यान! लिखा था। भाषा गुजराती मिश्रित हिन्दी है । पण्डित परिमल्‍लने हिन्दीमें श्रीपांछ चरित्र” लिखा था, जिसे वावू ज्ञानचन्द्रजी -लाहोरवालोंने ` १९०४ ई. मे प्रकारित किया । वादे 'दिगस्वर जेन भवन सूरतनें ई. १९६८ मेँ पुनः प्रकाशित किया। अन्तिम प्रशस्तिर्में कवि कहता है--- ূ ` “गोप. गिरगदढ्‌ ` उत्तम थान 1, . श्रबीर जहाँ राजा मान ।। ता आगे चन्दन चौधरी।1 कीरति सब जगमें विस्तरी 1 जाति वैश्य गुनह गंभीर। अति प्रताप कुल रंजन घीर ॥ ता. सूत रामदास. प्रान । ता सुत अस्ति महा युर जान 1 २. भारतोय संस्कृतिर्मे जेनधर्मका योगदान, पृ, १४२ ०. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ४९० |




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