महावीर वाणी | Mahavir Vani

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Mahavir Vani by बेचरदास दोशी- Bechardas Doshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १६ | यही श्राय उपनिषत्‌ के वाक्य काह, ्रविद्यायामन्तरे वत्तमानाः, स्वयंघीराः पण्डितम्मन्यमानाः, दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढाः, अ्न्धेनवं नीयमाना यथान्धाः । आज काल के पांडित्य में, शब्द बहुत, अर्थ थोड़ा; विवाद बहुत, सम्वाद नहीं; श्रहमहमिक्रा, विद्रत्ता-प्रदशेनेच्छा बहुत, सज्ज्ञानेच्छा नहीं; द्वेष द्रोह वहत, स्नेह प्रीति नही; श्रसार-पलाल बहुत, सार- धान्य नहीं; ्रविद्या-दुविद्या बहूत, सद्विद्या नहीं; शास्त का प्र्थ, मल्लयुद्ध । प्राचीन महापुरुषो के वाक्यों में, इसके विरुद्ध, सार, सज्ज्ञान, सद्भाव वहुत, असार और भ्रसत्‌ नहीं ) क्या किया जाय मनुष्य की प्रकृति ही में, अविद्या भी है, और विद्या भी; दुःख भोगने पर ही वेराग्य और सद्बुद्धि का उदय होता है । सा बुद्धियेदि पूवं स्यात्‌ कः पतेदेव वन्धने ? फिर फिर श्रविद्या का प्राबल्य होता ह्‌; वमनस्य, श्राति, युद्ध, समाज कौ दुव्यंवस्था बढती हं; सत्‌ पुरुषों महापुरुषो का कर्तव्य है कि प्राचीनों के सदुपदेशों का, पुनः पुन: जीणोड्धार और प्रचार करके, और सब की एकवाक्यता, समरसता, दिखा के, मानवसमाज मं, सौमनस्य, दाति, तुष्टि, पुष्टि का प्रसार करें, जेसा महावीर श्रौर बुद्ध ने किया।




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