महावीर वाणी | Mahavir Vani
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
209
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ १६ |
यही श्राय उपनिषत् के वाक्य काह,
्रविद्यायामन्तरे वत्तमानाः,
स्वयंघीराः पण्डितम्मन्यमानाः,
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढाः,
अ्न्धेनवं नीयमाना यथान्धाः ।
आज काल के पांडित्य में, शब्द बहुत, अर्थ थोड़ा; विवाद बहुत,
सम्वाद नहीं; श्रहमहमिक्रा, विद्रत्ता-प्रदशेनेच्छा बहुत, सज्ज्ञानेच्छा
नहीं; द्वेष द्रोह वहत, स्नेह प्रीति नही; श्रसार-पलाल बहुत, सार-
धान्य नहीं; ्रविद्या-दुविद्या बहूत, सद्विद्या नहीं; शास्त का प्र्थ,
मल्लयुद्ध । प्राचीन महापुरुषो के वाक्यों में, इसके विरुद्ध, सार,
सज्ज्ञान, सद्भाव वहुत, असार और भ्रसत् नहीं ) क्या किया जाय
मनुष्य की प्रकृति ही में, अविद्या भी है, और विद्या भी; दुःख भोगने
पर ही वेराग्य और सद्बुद्धि का उदय होता है ।
सा बुद्धियेदि पूवं स्यात् कः पतेदेव वन्धने ?
फिर फिर श्रविद्या का प्राबल्य होता ह्; वमनस्य, श्राति,
युद्ध, समाज कौ दुव्यंवस्था बढती हं; सत् पुरुषों महापुरुषो का
कर्तव्य है कि प्राचीनों के सदुपदेशों का, पुनः पुन: जीणोड्धार और
प्रचार करके, और सब की एकवाक्यता, समरसता, दिखा के,
मानवसमाज मं, सौमनस्य, दाति, तुष्टि, पुष्टि का प्रसार करें,
जेसा महावीर श्रौर बुद्ध ने किया।
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