गोम्म्टसार जीवकांड | Gommatsar Jivakanda
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
64 MB
कुल पष्ठ :
852
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
जवाहरलाल जैन सिध्दांतशास्त्री -Jawaharlal Jain Sidhdantshastri
No Information available about जवाहरलाल जैन सिध्दांतशास्त्री -Jawaharlal Jain Sidhdantshastri
रतनचंद जैन - Ratanchand Jain
No Information available about रतनचंद जैन - Ratanchand Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)स्कंधाल्यस्थ पंचदशस्यार्थ संप्रह्य लब्धिसारनामधेयं शास्त्रः प्रारभमाणों” भगवत्पंचपरमेध्टठिस्तव-
प्रशामपूविकां कतंव्यप्रतिशां विधसे--
(ब) उन्होंने लब्धिसार (रायचन्द्र शास्त्रमाला प्रकाशन) पृष्ठ ६३४ पर प्रशस्ति में लिखा है--
मुनि मृतबली यतिवषभ प्रमुख भए
तिनिहूँ ने तोन ग्रन्थ कीने सुखकार है।
प्रथम धवल प्रर दूजो जयधवल
तोजो महाधवल प्रसिद्ध नाम धार है ।
इसमें लिखा है कि भूतबली तथा यतिवृषभ ने धवल, जयधवल, महाधवल की रचना की ।
जबकि धवल, जयधवल की रचना भगवद् वीरसेन स्वामी तथा जिनसेन स्वामी द्वारा हुई है तथा
महाधवल भुतबली की रचना है ।
भूतबली पुष्पदन्त विक्रम की प्रथमशती के श्राचायें थे तथा यतिवषभ छठी शती के। जबकि
विक्रम की € वीं शती में वीरसेनस्वामी ने धवला टीका पूरी की थी। इसके बाद जयधवला रची
गई । इस प्रकार भूतबली तथा यतिवृषभ के समय धवल, जयधवल का अस्तित्व भी नहीं था।
जीवकाण्ड टीका के अन्य भी कई बिन्दु अ्रप्राउजल प्ररूपणरूप हैं। श्रतः गुरुजी ने धवलादिके
ग्राधार से इस विस्तृत टीका की रचना की है।
प्रस्तुत टीका का समय- दि. २२-१०-७६ ईस्वी, कातिक शुक्ला २ वि.सं. २०३६, वीर निर्वाण
सं. २५०६ को शुभ मृहतं मे गुरुजी ने टीका लिखनी प्रारम्भकीथी। दि. १६.१२.७६ ईस्वो पौष
वदी १२ को इस टीका का प्रथम श्रधिकार पूरा हुआ था । इस तरह गति से कायं करते-करते
दि. २६.११.८० ईस्वी को ६६६ गाथा तक की टीका पूर्ण हो गई थी।
देह की पूर्णतः भ्रक्षमतावश फिर गुरुजी (मुख्तार सा.) शेष टीका पूरी नहीं कर पाये थे।
यह सब उन्हें ज्ञात हो गया था कि अरब वे यह कार्य पूरा नहीं कर पायेंगे, इसलिए गुरुजी ने श्री
विनोदकुमार जी शास्त्री के माध्यम से यह टीका मेरे पास भिजवा दी थी, ताकि मैं इसे पूर्ण कर सकू ।
पूज्य गुरुजी दि. २८.११.८० की रात्रि को ७--७३ बजे ससंयम दिवंगत हुए। हा ! श्रब वह
करणानुयोगप्रभाकर कहाँ ?
प्रस्तुत टीका की शेली--मूल ग्रन्थ गोम्मटसार जीवकाण्ड प्राकृत गाथाओ्रों में है। उसके नीचे
गाथा का मात्र अर्थ दिया गया है। फिर विशेषार्थ द्वारा श्रथं का स्पष्टीकरण किया गया है।
पूरे ग्रन्थ में यही पद्धति भ्रपनायी गयी है। टीका में सर्वत्र आगमानुसारी १०८४ शंका-समाधानों
द्वारा विषय स्पष्ट किया गया है। ग्रन्थान्तरों के प्रमाण हिन्दी भाषा में देकर नीचे टिप्परा में ग्रन्थ-
नाम, अधिकार ঘৰ যা অয तथा सूत्र या पृष्ठ संख्या अंकित कर दिये गये हैं (देखो पृ. ११०-११
भ्रादि)। कहीं पर ग्रन्थान्तरों के वाक्य मूल प्राकृत या संस्कृत रूप में ही भाषा टीका में उद्घृत
कर दिये हैं (देखो पु. ११२-१३ प्रादि) तथा वहीं पर ग्रन्थनाम, गाथा व पृष्ठ भी दे दिये हैं, तो
कहीं मूल ग्रन्थ,--वाक्य टीका में देकर फिर ग्रन्थनाम आदि नीचे टिप्पण में उद्धृत किये हैं (यथा--
[ १३ ]
User Reviews
No Reviews | Add Yours...