वैदिक दर्शन | Vaidik Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पिण्डाण्ड श्टे में जाकर जो वायु नली द्वारा फेफड़ों तक विचरण करती है उसे उदान कहते हैं। यही उदान जब फेफड़ों में बोध हुए रक्त में मिलकर सारे दरीर में विविध रूप से भ्यमण करती है तो व्यान कहलाती है । शरीर के अधोभाग में रह कर मूत्र पुरीष आदि को बाहर निकालने वाले वायु का नाम अपान है। और नासिका द्वारा बाहर निकलने वाले वायु को भी अपान कहते हैं क्योंकि अपान का दाब्दिक अं बाहर या नीचे को साँस लेना है । नाभि के आस-पास दरीर के सध्य भाग में रहकर अँतड़ियों आदि की क्रिया में काम आने वाला वायु समान कहलाता है । इन्हीं सब प्राणों के जाल को प्राणमय कोश कहा जाता है। इसी की दक्ति पाकर अन्नमय कोदय के सारे व्यापार चलते हैं । स्थायी रूप से मृत्यु के समय तथा अस्थायी रूप से लम्बी समाधि में जब यह हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाती है तो अन्नमय कोश की सारी क्रियायें बन्द हो जाती हैं -मृूत्र-पुरीष-त्याग तथा नख या बालों का उगना तक समाप्त हो जाता है । ग्राणमय कोश में भी क्रिया प्रधान है । यथा में अन्नकोश में होने वाली क्रिया इसी के बछ पर चछती हैं । साधारणतया देखा जाता है कि हमारी शारीरिक क्रिया शरीर की गर्मी या अग्नि पर निर्भर है । जब दारीर में तापमान गिरने ऊंगता है तो उसकी विविध क्रियाओं में भी सथिल्य आने लगता है । यहाँ तक कि साधारण बोलचाल में ठंडा होना का अथे ही मृत्यु को प्राप्त होना है । गर्मी जीवन का चिहन है और अन्नमय कोश की यह गर्मी साँस द्वारा आई हुई प्राणवायु 0०४ के ढ्वारा होती है। इसीलिये श्रुति में प्राण को भी अग्नि कहा गया है । ३ सनोसय कोश--प्राणमय कोश के कोने-कोने में सन की शक्ति व्याप्त है। मन दाब्द मन धातु से निकला है जिसका अर्थ प्रायः सोचना-विचारना किया जाता है । परन्तु यथा में मन के अन्तर्गत मूर्घातत्व ज्ञान झाक्ति और हृदय-तत्त्वः संवेदन शक्ति दोनों आते हैं इसीलिए कहा है कि3 काम संकल्प शादी बा. २ २ २०१५ ९ ५ १ ८ जै. उ. ब्वा. ४ २२ ११५ ऐ. ब्रा. २ ३९ र--मन्‌ अवबोधने ज्ञाने स्तंभे पा. घा. पा. ८ ९ ४ ६७ १० १६९. के. उ. ५ प्र. उ. ४ ८ तु. क. बू. उप. ४ दे २८ छा. ३० ६ दे ५ ३--काम संकत्पो विचधिकित्सा श्रद्धा भरद्धा धृतिर ह्ली थी भी रित्येतत्सव॑ मन एवं का. झा. १४ दे ९




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