जातक खंड 1 | Jaatak Khand 1

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Jaatak Khand 1  by भदन्त आनन्द कौसल्यायन - Bhadant Aanand Kausalyaayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १५ | तृष्णा के क्षय हो जाने पर कमं का भीक्षयहो जाता ह ग्रौर पृनजंन्म का भी; लेकिन जब तक तृष्णा का क्षय नहीं होता तब तक तो प्राणी को जन्म जन्मान्तर तक जन्मो के चक्कर में रहना ही पडता है । बुद्ध ने जब बुद्धगया में बोधि-वक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया, उस ससय उन्होने सर्वेप्रथम यही कहा-- “ट खदायी जन्म बार बार लेना पडा । मं ससारमे (शरीर रूपी गृह्‌ को बनाने वाले) गुहकारक को पाने की खोज मे निष्फल भटकता रहा । लेकिन गृहुकारक । श्रव मेने तुझे देख लिया। (गरब) तू फिर गृह निर्माण न कर सकेगा | तेरी सब कड़ियाँ टूट गई । गृह-शिखर बिखर गया। चित्त निर्वाण प्राप्त हो गया, तृष्णा का क्षय हो गया ।* बुद्ध की शिक्षा के ग्रनुसार रूप, वेदना, सज्ञा, सस्कार तथा विज्ञान इन पांच स्कन्धो काही यह व्यवति वा ससार बना है, इन पांच स्कन्धो की धारा श्रच्छे बुरे कर्मानुसार बहती रहती ह, बहती रही है और तब तक बहती रहेगी जव तके कोई व्यक्ति तृष्णा का सम्पूणं क्षय नही कर लेता । पुनजेन्म प्राय सभी भारतीत दशेन सम्मत ह । बुद्ध की रिक्षा की विशेषता यही है कि श्रवात्मवाद के साथ पुनर्जन्म को स्वीकार किया गया हैं। जन्म मरण के बन्धन से मुक्त होना तो भ्राज दिन भारतीय दाशेनिको का सामान्य श्रादकशषं हं । तिपिटक म जिस जातक (ग्रन्थ) का समाव्रेण हं वह्‌ केवल गाधाप्रो का सग्रह हं । जिस प्रकार धम्मपद एके चीज हं श्रौर धम्मपद श्रदुकथा दूसरी, उसी प्रकार जातक एक चीज हैं और जातक श्रद्रुकथा द्रूसरी । श्रन्तर यह्‌ है ' धस्मपद (जरावग्ग १५३, १५४) की यह्‌ दो गाथाएँ प्रथम संबद्ध गाथाएँ कही जाती हे --- श्रनेक जाति ससार सन्धाविस्स अनिब्बिस गहुकारकं गवेसन्तो इक्या जाति पुनप्पुन्‌, गहकारक ! दिट्ठेसि प्न गेहूं न काहसि, सब्बा ते फासुका भग्गाः गह॒कट विसंखितः विसखारगतं चित्त तण्हान खयमज्कगा ॥




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