जैन साहित्य का इतिहास भाग 1 | Jain Sahitya Ka Itihas bhag 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20 MB
कुल पष्ठ :
511
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)४ जैनसाहित्यका इतिहास
दक्षिणकी तमिल मौर कनडी भाषामे भी जैन साहित्य कम नहीं है । অল্প
गुप्त मोयके राज्यकालके अन्मे श्रुतकेवी भद्रबाहु मगधमें दुर्भिक्ष पडने पर् एक
बड़े साध-सघके साथ दक्षिणी और चले गये थे। उसके बादसे दक्षिण जैन
सस्कृतिका केन्द्र बत गया और लिगायताके अत्याचारोके आरम्भ होने तक वहाँ
जनोका अच्छा प्रभाव रहा। दिगम्बर परम्पराके अधिकाश प्राचीन भ्रन्थकार
दक्षिणके थे । अत उ'हाने प्राकृत और सस्कृतकी तरह कनडी और तमिलमें भी
खूब रचनाएं की । अतएव कनडी और तमिल भाषाम भी प्रचुर जैन साहित्य
उपलब्ध हू । इम तरह जन साहित्य बहुत विस्तत है ।
वर्गीकरण और कालक्रम
दिगम्बर और दवेताम्बर दोनो परम्पराओके साहित्यमें समस्त जैन साहित्यका
वर्गीकरण विषयकी दष्टिसे चार भागोमे विया ह। वे चार विभाग है-प्रथमानुयोग,
करणानुयोग चरणानुयांग और द्रव्यानुयोग । पुराण चरित आदि आख्यानग्रन्ध
प्रथमानयोगमे गर्भित किये गये ह । करणशब्दकें दो अथ है--परिणाम और
गणितके सूत्र ।) अत खगोल और भूगोलका वणन करनेवाले तथा जीव और कभ
के सम्बन्ध आदिके निरूपक कमसिद्धान्त विषयक ग्रन्थ करणानुयोगमे लिए गये
हैं। आचार-सम्बन्धी साहित्य चरणानुयोगमे आता है और द्रव्य, गुण, पर्याय
आदि वस्तुस्वरूपके प्रतिपादक ग्रन्थ द्रव्यानुयोगमें आते है ।
इवेताम्बर परम्पराके अनुसार यह अनुयोग विभाग आयरक्षितसूरिने क्या
था! अतम दसपूर्वी आयवज्रका स्वगवाम विण सण० ११४ हुभा 1 उसके
बाद आयरक्षित हए 1 उन्होने भविष्यमे होनेवाले अल्पबुद्धि दिष्योका विचार
करके आगमिक साहित्यको चार अनुयोगामे विभाजित कर दिया । जैसे, ग्यारह
अगोको चरणकरणानुयोगे समाविष्ट किया ऋषिभाषितोका समावेश धमकथानु-
यांगमे किया, सूयप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रशप्ति आदिको गणितानुयोगमे रखा और बारहवें
अग दष्टिवादको द्रम्यानु्यागमे रखा ।
दिगम्बर परम्परामें जिसे प्रथमानुयोग नाम दिया है उसे ही श्वेताम्बर पर
म्परामें घमकथानुयोग कहा है और श्वे० परम्परामें जिमे गणितानुयोग सज्ञा दी
गई है उसका समावेश दिगम्बर परम्पराके करणानुयोगमें होता है ।
इस तरह विपयकी दष्टिसि जत आगमिक तथा तदनुसारी अन्य साहित्य चार
भागोमें विभाजित ह ।
डा० विन्टरनीटसने लिखा है कि यद्यपि जैनधम बौद्धधर्मसे प्राचीन है तथापि
१ आब० नि० गा ७६१ ७७७1
२ हि ० लि० भां० २ पृ० ४०६ |
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