परम ज्योति महावीर | param Joyoti Mahavir

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param Joyoti Mahavir by धन्यकुमार जैन 'सुधेश '-Dhanyakumar Jain 'Sudhesh'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(३) गुलिथि्यां सुल जाती हैं। मोह म्न्थियाँ हट जाती हैं और तब आत्मानुभव के आनन्द की चरम अवस्था आती है। भगवान मह्दावीर के अनुसार-आत्म विकास की सर्वोच्च श्रवस्था ही ईश्वर्व है | बारबार महावीर स्वामी ने इस बात को स्पष्ट क्रिया है कि--केवल सिरमुड्ा लेने से कोई श्रमण नहीं होता; श्रॉकार का जाप करने से कोई ब्रामण नदीं होता; जंगल में वास करने से कोई मुनि नदीं होता तथा कुश वस्त्र ग्रहण करने से कोई तपस्वी नहीं होता । वास्तव में समता से ही श्रमण होता है; व्रह्मचय' से ब्राह्मण होता दै; ज्ञान से मुनि द्ोता है; तप से तप्स्वी होता है। मनुष्य अपने अपने कर्मो से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र कहा जाता है किसी जाति विशेष मे उखन्न होने से नहीं । एक बार किसी ने भगवान मह्यवीर से पूछा--सोना अ्रच्छा या জাবানা £ महावीर ने उत्तर दिया--“पापी मनुष्यों का सोना अच्छा और धर्मात्माओं का जागना ।” फिर किसी ने पूछा--बलवान होना अच्छा या दुबल १ उत्तर दिया--“अधामिक मनुष्यो का दुबल होना अच्छा और धार्मिकों का बलवान ।” सेवा परम धमं ढै भगवान महावीर के श्रनुसार सेवा द्वी धर्म का मूल है। वे अपने शिष्यों को उपदेश देते हुए कहते हैं--““यदि कोई बीमार है या संकट में पड़ा है और तुम उसकी सहायता करने में समर्थ हो लेकिन यहद्द समकर सहायता नहीं करते कि इसने मेरा कोई काम नहीं किया मैं क्यों इसको सद्दायता करूँ ! जो मनुष्य इस प्रकार अपने कत्तब्य के प्रति उदासीन द्वोता है वह धरम से सवथा पतित हो जाता है। उक्त पाप के कारण वह सत्तर कोटाकोटि सागर तक चिरकाल अन्म मरण के चक्र मे उलका रहेगा । सत्य के प्रति अभिमुख न हो सकेगा ° (चम्पापुर प्रवचन) ।




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