सत्यार्थ यज्ञ: | Satyarth Yagya

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Satyarth Yagya by अजित प्रसाद - Ajit Prasadशिखरचन्द जैन - Shikhar Chand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ = पूरव चौरासी लाल श्रावल१ चिन्द्‌ वेल गनीजिये। सर्वार्थं सिद्धि विमाने दय श्रादिनाथ कीजिये ॥ दोहा सो आदीश्वर जगतपति, सब जोबन रक्तपांल । যুক্ষলি বলা कंथवर, श्राश्नो इषां विशाल 1 भ्रीं प्रीदृषरमनाथजिनिन्द्र । शत्रावतरावतर संबोषट्‌ ( इ्थाह्याननं † झज गए तिषठ ठः ठः ( स्थापनं ) भत्र ममसक्निहितो सव भव वषटू ( संन्निवीकरएं ) द्रतविलंबित परम नीर सुर्गंध॑ नियोजित, मधुर बाणिन भौर सुर्ग जितें । कनक भाजन ले भरि हाथमें, करि त्रिशुद्ध जजों रिपिनाथमे ॥ ओशो ओआीवृपज्ञन, तजिनन्द्राय जन्मअएमृत्युविनाक्षनाय जच नित्रपाप्रीति स्वाहावा चंदन बावन बाम घसो मयो। हिमपरार खुभमिश्रित सो लया । कनक गात्र भरों धरि हाथनमें । करि त्रिशुद्धश/ जजों रिप्नाथ में । গীলা সাখুঘপলাএপিঈলযাঘ লহ্াশাঘজিলাহালা चन्दनं निर्वेपामीति स्वाहा। अभक्ष अक्षत राजन भोगके | गुलकर लब्जित तज्जित सोकके । सुभग भाजनमें ले हाथमें | कर च्रिशुद्ध जजँ रिषिनाथ में॥ शना क्षा श्रावप्रभनाथजिनेंद्राय अज्ञयपरपाप््ये अच्षतावू निवंपाभीति स्वाहा । कलप पादपते५ उपजे भये। परमगंध प्रसारित ते लये। हरप पूपेक लीजिये हाथमें । करि शब्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ में।॥ धो हीं क्रावूषभदाधजिनेस्द्राथ कापवाणविभाशनाय पुष्प॑ निर्वपाभीतिस्वाहा | १९ रायु, २ कपूर, ३ मन, वचन, कायक शुदि, ४ मोती, ५ वृक्त,




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