रविन्द्र साहित्य भाग १५ | Ravindra - Sahitya (bhag - 15)

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Ravindra - Sahitya (bhag - 15) by धन्यकुमार जैन - Dhanyakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्मरण $ कविता ११ मृत्यु ~ जवनिकाके पठेत पुन लौट तुम आई मेरे हृदय - व्याह ~ मन्दिरमे नवल - वधूकी नाई सब्दहीन पद्‌-गतिसो । जितनी ग्लानि छान्त जीवनकी सो सव॒ मिटी मरन-मजन्ते। रासि कूपके धनकी प्रापति ই बिस्व-लछमीकी परम पाके कारन । मुग्ध मृदुर सुसकत सुखे चित-निश्त दीति करि धारन ठी मई आनि चुपकेतै। ख्त्यु-द्वारके द्वारा संसृति उरमे वटी तुम, श्रिये, प्रेमकी धारा। आज न वाजे वजत, न जनता सजत, न उच्छव वसौ, दिपत न दीपक-माल , आजको अर्नेद-गोरव ऐसौ स्तन्य सान्‍त गस्भीर मूक्क अरु नेन-नीरमे लिमगन । जानत ना या बात आजकी खनत नाहि कोड जन। मेरे उर - अन्तर अव केवल एक दीप उजरत है, बस, मेरो सन्नीत अकेलो मिलन-गिरा খুন ই। १२ हों करि रह्यौ आप अपनेंमें एक अपूरब अनुभव, हो परिपूरन आज । निमिषमे तुमनें अपनो गौरव देवि, मिलाय दियो है मोमे। ले अपने हातनमें दहै छुवाय खत्युकी पारस-सनि मेरे जीवनमे। भेरी सोक - जग्य - अगिनीते प्रगव्यो रूप तिहारो नव निरमल मूरति धारन करि सुन्दर सूरततिवायै, सती, अनिन्य सतीत्व-ज्योतितं दीप्र देह तब दरसे, जाकों छुवत न सोक-दाह ऋछु,न कह-ुँ मलिनता परसे। १८




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