आत्मानुशासन प्रवचन भाग ४ | Aatmanushasan Pravachan (bhag - Iv)

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Aatmanushasan Pravachan (bhag - Iv) by खेमचन्द जैन - Khemchand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्लोक ८४ ११ कमाता हूँ, अन्याय करता हूं तो इससे जो पाप बंधेंगे, उनको तुम बांटोगे था नहीं ? भैया | पापोंका बांट लेना तो दूर रहा। साधारणतया सज्जन लोगों को पापोको स्वीकार कर लेनेमें भी डर लगता है। सो सभीते यों कहा कि हम पाप न बाटेंगे । उन पापोका फल्ल तो तुम अकेले दी भोगोगे । बाल्मी किके कुछ ज्ञान जगा और साघु 'महाराजके पास आते भाते बहुत वराग्य बढ गया | साधुसे बाल्मीकिने कहा कि महाराज | जो कुछ भी हम पाप करते हैं, वे कोई भी वाटनेको तेयार नहीं है। हमें तो आप जेसा बनना है मुमे अब फिसी भी वस्तुसे कु प्रयोजन नदीं है । श्रन्तमे बह एक संन्यासी हुए ओर कुछ साहित्यिक रचनाएं भी उन्होंने को । परिणामोंकी निर्मलताकी आवश्यकता-- सोच लीजिए कि जिस पदार्थमे जिस प्रकारसे जो परिणमन होता है; उस परिणमनको दूसरे केसे बाटेगे १ हम पापपरिणास करे ओर दूसरे बांट लें, यह कभी नहीं, हो ही नहीं सकता। खुदकी करनी खुदको ही भरनी पड़ेगी। दूसरा कोई भरने न आएगा और जो कुद हम पाप अथवा कर्म करते हैं, बढ़ी मुश्किलसे टल सकें तो टल जायें; अन्यथा इनका टलना कठिन है। हमें अपने परिणामों की निर्मलतां बनाने की ओर ध्यान रखना चाहिए । वतंमानमें कुछ थोड़ासा धन समागम मिल जाए तो यह बड़ी बात नदीं है, किन्तु अपना परिणाम न्याययुक्तं बना रे दै, यह बड़ी वात दै। धर्यं बही कर सकता है, जो दुनियाके लिए अपनेको मरा हुआ समम ले | चेतो और अपने श्रात्मदितंके कार्यमे लगो । आत्मद्वित यही ই अपने सहजस्वरूपकों पहिचानों, उसका হর करो और उस - ज्ञानपु जके..उपयोग में ही लीन रहकर स्थिर रहो । जन्मसन्तानसम्पादिविवाहादिविधायिनः । स्वा परे5स्य सकृषआशणहारिणो न प॒रे परे ॥=४॥ আনন बे री-- इस जीफा वास्तविक बेरी वह है जो इस जीबको जन्म मरणकी सता बढ़ानेमें कारण बने । सक्लेश, विह्लता आदि सकटों कां जो कारण वनें उसको ही तो बास्तवर्में बेरी कहेंगे। अब लोकिकजनों द्वारा साने गये बेरियोंकी झोर ज्ञानीजनों द्वारा देखे गए चेरियोंकी तुलना करिए । बालकके साता पिता) वन्धुजन) इष्टजन ओर रिश्तेदार उस बालक টা के प्रति क्या अच्छे या बुरे कर्तव्य करते हैं? इसको जरा ध्यानसे सुन्तिय | ॥ । दितकारी माता पिद्य-- बालकओे आत्माका हित हो। इस प्रक्नारक




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