ज्ञानार्गाव प्रवचन भाग ६ , ७,८,९,१०,११ | Gyanarnav Pravachan (bhag - 6,7,8,9,10,11)

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Gyanarnav Pravachan (bhag - 6,7,8,9,10,11) by खेमचन्द जैन - Khemchand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ज्ञागाणंव प्रवचन षष्ठ भाग ११ उसके ग्रत्तरमे बल है श्रौर प्रस्नता ই। सदाचार जीवनक भ्त - कोई पुरुष बडे हृष्ट पष्ट भी देवे नाते है श्रौर उनके शरीरमे कान्ति चमक-दमक भी है, बड़ी श्रच्छी सुकुमारतासे बंडे भोगोसे जिनका जीवन व्यतीत हो रहा है ऐसे भी बड़े धतिक पुरुषोके जो शरीरसे बलिष्ट दिखते है उनके दिलमे कमजोरी ऐसी विशेष भी पायी जा सकती है कि जिससे एक स्थूलकाय बलिश्से होकर भी अन्तरम कायरता श्रौर ग्रति दुबेलताका श्रनुभव करते है श्रौर निरन्तर मरनेका संदेह भी बनाये रहते हँ । वह किस बातका प्रन्तर है ? निसा मन परसेवा, दया, दान, तपश्चरण, परमाथै, प्रीति श्रादिक उपायोसे बलिष्ट नही ब सका वह मन नाना लुदगजियोमे एवाथ भरे विषय सम्बन्धी कल्पनाभ्रोके भारसे शीर्ण हो रहा है भर ऐसे शीर्ण गले मनमे वह बल उत्पन्न नही हो पाता, यह सब ग्रन्तर क्रिस बातका है ? सदाचारका, सच ज्ञानका, सम्य- कत्वका जिनके पालन है ऐसे पुरुष शरीरसे वृद्ध बल क्षीणकाय होकर भी उनके मनोबल, वचनबल और कायबल भी सही रहा करता है। ग्रत सुखमे पले नही, समागममे विश्वास करें नही, वर्तमान पृष्यकी परिस्थितिमे मौज माने नहीं इन सबको मायारूप जानकर इनसे उपेक्षाभाव करके সপন प्रापक श्रन्दर जान भ्रौर भ्रानन्दके लिए उत्सुक रहना चाहिए। नि सद्धतवं समासाद्य ज्ञानराव्य समीप्ितम्‌ । जगत्नयचमत्कारि चित्रभूतं विचेष्टितम्‌ ॥२५९॥ নিঃঘন্ ব্বানমী गिरो ध्यादृख-जिन्होने निष्परिगरहताको श्रंगीकार करके जग- त्रयम चमत्कार करने वाले विलक्षण श्रदभुत चेशपयुक्त ज्ञानसाप्राज्यकी वाज्छाकी है वे ध्याता योगीश्वर प्रशसाके योग्य हँ । जिसके केवल एक यही अ्रमिलाषा दै -मेरा स्वरूप सहजज्ञाव है श्रोर इस सहजज्ञानका मैं उपयोगी ही रहा करू व्यथेकी परवस्तुषोमे जो मेरे तेरेकी कल्पताएँ हो जाती है, जिनसे सारका नाम नहीं है, सभी पत्यन्ताभाव वाले पदार्थ हैं उनमें जो व्यर्थंकी कल्पनाए जगती है वे विपदा हैं, और उस विपदासे हमारा छुटकारा हो, श्ञान्सुधा रसका हमारा पान रहा करे ऐसी जिनके श्रभिलाषा जगती है भ्रीर केवल अपने आपके ज्ञानसाम्राज्यको ही, ज्ञानविकासको ही चाहते हैं, भ्पनेसे बाहर किसी भी' जगह भ्रत्य कुछ भी वाज्छा नही रखते हैं ऐसे योगीश्वर ध्याता प्रशंसाके योग्य हैं। : दत्तरुचिमें हर ,पम्बन्धित अका अनुराग - जिसे जिस तत्वकी रुचि होती है उस তন सस्बंध रखने वाले अन्य-अन्य भी पदार्थोंकी प्रशंसास्तुति किया करते है ऐसे भी लोग जिनसे कुछ समानता भी नही उनका भी श्रादर अभिलषित वस्तुकी वजहसे लोग किया करते है । जैसे श्रापका किसी ग्रामे कोई शरतीत इष्टमित्र रहता हो, मानो किसीकी स्वमुराल ही हो, उस गांवसे, कोई भ्रन्य जातिका भी पुरुष निकले तो उस स्थ्रीक्ी प्रीतिके




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