तत्त्वार्थ सूत्र | Tattvarth Sutra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१५ वे सचेठ़परपराके येः जसा करि हमने परिचय में दरमाया हैँ । हमारे अवलोकन और विचार का निष्कं संक्षेप मे इस प्रकार है-- (१ ) भगवती आराधना और उपके टीकादार अपराजित दोनों यदि यापनीय हूँ तो उनके अन्य से यापनीय संघ के आचारविधयक निम्न लक्षण फलित होते है-- ` (कर) यापनीय आचार का औश्सगिक अंग अचेलत्व भर्थात्‌ नग्वत्व है । _ (ख़) यापनोय संघ में मुनि की तरह आर्याओं का भो मोक्षरुक्षी स्थान हैं। और अवस्याविशेष में उनके लिए भी निवसदभाव का उपदेश हूँ । (गे) यापनोय आचार में पाणितल भोजन का विधान है और कमण्डलु-पिच्छ के सिवाय और किसो उपकरण का ओऔत्सगरिक विधान नहीं है । उक्त लक्षण उमास्वाति के भाष्य ओर प्रशमरति जैत ग्रन्थों के वर्भन के साथ बिलकुल मेल नही खाते क्योकि उनमें स्पृष्ठ रूप से मुनि के वस्त्र- पात्र का वर्णन हैं। और कही भी नग्तत्व का औत्सगिक विधान नहीं हैं । एवं कमण्डलु-पिच्छ जैसे उपकरण का तो नाम भी नहीं । (२) श्रीक्रमोजी की दलोछोंमें से एक यह भी हं क्रि पण्य शति मादि विषयक उमास्वाति का मन्तव्य अपराजितकौ दीकामे पाया जाता हूँ । परन्तु गच्छ तथा परंपरा को तत्त्वज्ञान-विपयक मान्यताओं का इतिहास कहता हूँ कि कभी कभी एक हो परंपरा में परस्पर विरुद्ध, दिल्लाई देकेशाली सामान्य और छोटी मान्यताएं पाई जातों है। इतना ही नही बल्कि दो परस्पर विरोधी मादी जानेवाली परंपराओं में भो कभी कभी ऐसी सामान्य व छोटी छोटी मान्यताओं का एकत्व पाया जाता ह 1 ऐसी द्णा में वस्त्रपात्र के समर्यक उमरास्वाति का वस्तरपात्र के विरोधी यापवीय संघ की अमुझ मान्यताओं के साथ साम्य पाया जाय सो इस में कोई अचरज को बात नहों 1 पं७ फूलबन्धजी ने तत्त्वाय 'मूत्-के विवेचन को-प्रख्वादना में: सृत्य- - पिच्छ को यकार मौर उमास्वाति को” माय्यकार बतलाने 'का-म्रयत्त




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