कसाय पाहुड | Kasay Pahud

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Kasay Pahud  by श्रमण श्री फूलचन्द्र - Shraman Shree Foolchandra

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about श्रमण श्री फूलचन्द्र - Shraman Shree Foolchandra

Add Infomation AboutShraman Shree Foolchandra

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
( १४ ) उत्कृष्ट अनुभागकाणडकफी श्रन्तिम वर्गणाके पतनके समय ही प्रात होती है। कारण कि जब श्रन्तिम बर्गयाका पतन होता है तब उसका निक्षेष श्रन्तिम बर्गशाके पतनके साथ ही निमूल হীননাজী उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकको छोड़कर ही होता है, अ्रन्यथा उसका सर्बथा श्रभाव नहीं हो सफता | यही कारण है कि यहाँ पर अन्तिम वर्गणासे हीन उत्कृष्ट श्रनुभागकाणडकप्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना बतलाई है। उत्कृष्ट निक्षेफा विचार फरने पर वह उत्कृष्ट श्रतिस्थापनासे विशेष श्रघिक ही प्राप्त होता है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागके बन्ध करके एक थ्रावलि बाद अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाका श्रपकर्षण करने पर इसका निक्षेप जघन्य श्रतिस्था पनासे नीदे जितना भी श्नुमागग्रस्तार है उस सबमें होता है | विचार करने पर निदतेषरूप यद श्रनुभागप्रस्तार पूर्वोक्त उत्कृष्ट श्रतिस्थापनासे विशेष श्रथिक हे ! यही फारण है कि यँ पर उत्कृष्ट निकतेपको उत्कृष्ट श्रतिस्थापनासे विशेष श्रधिक बतलाया द । यँ इतना विशेष समभना चाहिए कि उत्कृष्ट श्रतिस्थापना तो व्याधातमें ही प्राप्त होती है परन्तु उत्कृष्ट निक्षेप अव्याधातमें ही प्रात होता है । अनुभागङत्कषेश-- जवन्य श्रतिस्थापना श्रौर जघन्य निद्ेषप्रमाण श्रन्तिम स्पर्धकोका उत्कर्षण नहीं होता । हाँ इन दोनोंके नीचे जो स्पर्धक है उसका उत्कर्षण हो सकता है। तथा इस ত্র नीचे जघन्य स्पर्धक पर्यन्त जितने भी स्पर्धक हैं उनका भी उत्कषंण हो सकता दै। मात्र सर्वन्न अतिस्थापना तो एक समान ही रहती है, निक्षेप बढ़ता जाता है। पहले श्रपकर्षणका निरूपण करते समय जघन्य और उत्कृष्ट निक्तेपष तथा जपन्य अतिस्थापनाका जो प्रनाण बतलाया है वही यहाँ पर भी समभना चाहिए । विशेष व्याख्यान न होनेके कारण यहाँ पर उसका स्पष्टीकरण नहीं किया है । मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रम यह उत्कर्पण, अपकर्षण और परप्रकृतिसंक्रमविषयक जो प्ररूपणा की है उसे ध्यानमें रखकर वहाँ सर्वप्रथम २३ अनुयोगद्वारों तथा भुजगार, पदनिक्षेप और इद्धिके आश्रयसे मूलप्रफृति श्रनुभाग- संक्रमका विचार किया गया है। वे तेईस अनुयोगद्वार इस प्रकार हैं--संज्ञा, सब्रसंक्रम, नोसवंसंक्रम, उत्कृष्ठसंक्रम, अनुत्कुष्टसंक्रम, जपन्यसंक्रम, श्रजपन्यसंक्रम, सादि, श्रनादि, ध्रुव, अभुव, स्वामित्व, एक जीवकी श्रपेक्षा काल, श्रन्तर, नानाजीवॉफी श्रपेत्ञा मंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पशन, नानाजीवोकी श्रपेत्ता काल, श्रन्तर, माव श्रौर श्रर्पबहुत्व । इन २३ श्रनुयोगदारोका विषय सुगम होनेसे इनपर वचूरीसूत्र नीं ह! जयधवलामें भी साद्यादि चारः स्वामित्व, पक जीवकी श्रपे्ता काल श्रौर श्रन्तर मात्र हन श्रनुयोगद्वारोंका ही स्पष्टीकरण किया गया हैं और शेष श्रनुयोगद्वारोका विचार श्रनुभागविभक्तिके समान रै यह बतलाकर उनका व्याख्यान नीं किया है । इसी प्रकार भुजगार, पदनिक्ेप श्रौर वरदिके श्रवान्तर श्रनुयोगद्वारोषा विचार करते हुए किसीका संक्षेपमें व्याख्यान कर दिया गया है श्रौर किसीका कथन अ्रनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना मात्र करके मूलप्रकृति श्रनुभागसंक्रका कथन समाप्त किया गया हे । उत्तरप्रकृतिअनुभागसंक्रम उत्तरप्रकृतिश्रनुभागसंक्रममें २४ अनुयोगद्वार हैं यह प्रतिशा चूर्णिसूत्रमे ही की गई है। मूल- प्रकृतिश्रनुभागसंक्रके विषय परिचयके प्रसंगसे जिन २३ अनुयोगढारोफा नामनिर्देश किया है उनमें सल्लिकर्षके मिलाने पर उत्तरप्रकृतिश्रनुभागसंक्रमसम्बन्धी २४ अनुयोगद्वार हो जाते हैं । उनमें सर्वप्रथम संशा श्रनुयोगद्वार है। इसका व्याख्यान करते हुए उसके घातिसंशा और स्थानसंशा इस प्रकार दो भेद फिये गये हैं। मिथ्यात्व श्रादि कर्मोंके उत्कृष्ट आदि अनुभागसंक्रमरूप स्पर्धकोमें कौन सर्वधाति है और कौन देशघाति है इसकी परीक्षाका नाम घातिसंशा है, क्योंकि घातिकर्मोके श्रनुभागबन्धकी अपेक्धा




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now