साकेत के नवम सर्ग का काव्य वैभव | Saket Ke Navam Sarg Ka Kavya Vaibhav

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Book Image : साकेत के नवम सर्ग का काव्य वैभव  - Saket Ke Navam Sarg Ka Kavya Vaibhav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ सीधे प्रकार द्द्‌ सकती दै, इसकी ओर कवि की इटि जाती ३ । अनेकरूपमयी विरह-विद्धरुता को अनेकदृत्तमयी बना देना कवि के कौशल का परिचायक है । दूसरी बात यह ह कि दृता की विविधता ক कारण पाठक का जी भी नहीं ऊबता। इस सगं मे कीं घनाक्षरो की छटा है तो कहीं स्वेया अपना सौंदय छुटा रहा है; कही संस्कृत के सुरुकित वर्णिक इृत्त हं तो कहीं मात्रिक खन्द হাসিল हो रहे हैं; कहां भायां छन्द है तो कहीं सुन्दर दोहे बिखरे पढ़े हैं * निम्नलिखित दोहे को रोनिये- उसे बहुत थौ विरह के, एक दणड कौ चोट । धन्य सखी देती रही, निज यलो জী গত | “दण्ड” शब्द यहाँ दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है- ( १ ) डण्डा और (२ ) साठ पछ का समय । छ्लेप के कारण इस दोहे में बढ़ी मार्मिकता आ गई है तथा रूपक का भी अच्छा निर्वाह हो गया है । डण्डे की चोट से बचने के लिए ओट की आवश्यकता होती दे विरह के एक दण्ड की चोट भी ऊमिला सहन नहीं कर पाती, यत्रों की भोट से किसी प्रकार सखी उसकी रक्षा कर रही दै। इस दोहे में “दण्ड की चोट! इस पहले रूपक के आधार पर ध्यत की ओट इस दूसरे रूपक का निरूपण हुभा >, इसलिष्‌ यहाँ परम्परित रूपक है जिसका आधार दण्डः शब्द्‌ का श्लिष्ट प्रयोग है । ऊर्मिला का अपने प्रियतम से मिलना अभी दूर की वस्तु थी, केवर विलाप ष्टी उसके वश का रह गया था । गायक की अँगुलियों द्वारा वीणा के तारों का स्पश किये जाने पर जिस प्रकार “दिर दार दारां की ध्वनि निकलती है, वेसे ही शरीर के स्पशे-मात्र से ऊमिंला की विलाप-ध्वनि निकलती थी । विलाप ही उसके जीवन का অনু भारूप हो गया খা मिलाप था दूर भ्रमी धनी का . विलाप ही था बस का वनी का ।




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