पराजित | Parajit

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Parajit by कमल शुक्ल - Kamal Shukl

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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. नहीं समभता था। श्रब उसने स्वयं कई कारीगर रख छोड़ थे । वारे, . जोड़ी चप्पलों के तले सिलने में वह बलवन्ती को भी डेढ़ रुपया देने लगा था। इस तरह रुपये-बारह आने का काम बलवन्ती दिन-रात जुटकर कर कर लेती थी । तब कही माँ-बेटी की उदर-पूर्ति हो. पाती थी । | हरदेई भ्रभी बरोसिया के ही पास बेठी थी कि वलवन्ती आँचल में चप्पलें भरे उसके पास श्राकर बंठ गई और प्रसन्नता के श्रतीव आवेग से आलोड़ित होकर जल्दी-जल्दी कहने लगी--भरे माँ !, देखो तो झ्राज ` -नेवागी ने मुझे दो दर्जव चप्पलें दी हैं । पूरे तीन रुपये की मजदूरी है । सचमुच नेव(जी बहुत अ्रच्छा है माँ। मुभसे बेचारा जब भी होता है यही कहा करता है बलवन्ती संकोच न करना किसी चीज़ की जरूरत हो तो बतलाता । में कोई गैर नहीं है. । हे... कि 0 . हरदेद मन ही मन किसी गहरे विचारमें दूब गई और कुछ क्षण वाद.वोली--ष्ा वेटी, कई किसी को कुछ दे नहीं देता है, मगर दुनिया- दारी का यही दस्तूर है । नेवाजी हम लोगों का स्याल रखता है, यही .. बहुत है । इस पर बलवन्ती अल्हड़ता वश धीरे से कह गई---हाँ, माँ, यह विल्कुल सही हैं । श्राज ही बेचारा, पूछ रहा था कि बलवन्ती तुमने সাজ बहुत देर कर दी। कारीगरों को काम बहुत पहले बाँट चुका था। लेकिन तुहारे लिये चप्पलें, श्रलग रख दी हैं । हरदेई यह सुन कर कुछ चौंकी, किन्तु वह कुछ बोल नहीं पाई । -बलवन्ती अपनी बात फिर कहने लगी--'सच कहती हूँ माँ अगर इतना জাম रोज मिलता रहे तो हम लोगों को किसी किस्म की तकलीफ नहीं , हौ सकती ।' | | हरदेई फिर भी चुप रही । वह सोच रही थी कि नादान-बलवन्ती यह नहीं जानती कि दुनिया बिना मतलब किसी के काम नहीं ्राती हे। . भ्रपने तो काम आते ही नहीं फिर परायों का क्या भरोसा । वह नेवाजी




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