शरतचन्द्र : एक अध्ययन | Sharatchandra Ek Adhyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उपक्रमणिका लिखा है वह अधिक महत्वपूर्ण था । संदेह:“नहींः“कि.:उनके * युग को देखते हुए उनके धमंतात्त्विक मत मी क्रान्तिकारी नहीं तो प्रगतिशील थे | उन्होंने समाज के रथ को गतानुगतिकता के कीचड़ से निकालकर बुद्धिवाद के ग्रेडट्रंक रोड' पर चढ़ाने की चेष्ठा की, यद्यपि , वे स्वयं सोलहों आने बुद्धिवादी थे ऐसा आज कहना कठिन है | फिर भी वे प्रगतिशील थे इसमें सन्देह का अवकाश नदी। उन्होंने लिखा था “तीन चार हजार वषं पदले भारतवपं के लिये जो कायदे क्रानून बने ये, श्राज दिन उनको हरफ बहर्फ मानकर चलना समव नहीं | वे ऋषि स्वय यदि आज मौजूद रहते तो कहते “नहीं, ऐसा नही हो सकता, यदि तुम हमारी विविध-व्यवस्थाओ को पूर्ण रूप से क्वायम रखकर चलो तो उससे हमारे धमै के ममका विरुद्धाचरणं दी दोगा | हिन्दू-धर्म का वह मर्मभाग अमर है, हमेशा रहेगा और मनुष्यों का उससे कल्याण ही होगा, क्योकि मनुष्य-प्रकृति मे ही उनकी नींव ই। सभी धमे मे विशेष विधिर्या सामयिक द्यी होती रै वे समय-मेद के अनुसार परिहाये त्था परिवर्तनीय ई ।: इत्यादि । यकिमचंद्र के धर्मेतत्त्व की मने श्रवतारणा इसलिये की कि उनकी साहित्य-साधना धर्मानुशीलन से बिल्कुल भिन्न पर्याय की वस्तु नहीं थी, यदि वे प्रत्यक्ष रूप से स्वजाति, स्वदेश तथा स्वसमाज से अपने साहित्य की प्रेरणा प्राप्त करते ये, तो परोक्ष रूप से मनुष्य का अ्रदृष्ट तथा भनुष्यता के आदश की खोज से ही उन्हें प्रेरण मिलती थी |४8 वेकिमचद्र साहित्य में आदशंवादी थे, उन्होंने लिखा है, “काव्य का मुख्य उच्द श्य नीतिशान नहीं है, किठु नीतिशान का जो उद्देश्य है काव्य का भी वही उद्द श्य है, याने चित्तशुद्धि |” उन्होंने उत्तरचरित की অনাজান্বলা करते हुए और भी लिखा है, “जो लोग कुकाव्य निर्माणकर दूसरों के चित्त को कलुषित करने की चेष्टा करते है, वे देखिये....आधुनिक व गला-साहित्य-..श्री मोहितलाल मजुमदार ।




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