पिंजरे की उड़ान | Pinjare Ki Udan

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Pinjare Ki Udan by यशपाल - Yashpal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्मक्रोछ प्‌ रहे थें पाण्वं की चढद्ढानों से टफराकर वे फेतिल हो थे। फेनराशि से दृष्टि न हटाकर कब्रि नें कहा--- सौन्दर्य उन्मत्त हो उठा हैं । युवती को जान पड़ा मानों प्रकृति मुखर्ति हो उठी है । कुछ क्षण पश्चात्‌ कवि ने कहा-- आवेग में ही सौन्दर्य का चरम विकास है । आवेग चिकल जाने पर केवल कीचड़ रह जाता है । युवती तन्मयता से उन शब्दों को पी रही थी । कवि ते कहा -- अपने जन्म-स्थात पर मक्रील न इतनी वेगवती होगी न इतनी उद्दाम । दिशु की लटपट चाल से वह चलती होगी और समृद्र में पहुँच वह प्रौढ़ता की किधथिल गम्भीरता धारण कर लेगी । अरी मक्रील तेरा समय यही है । फूल न खिलने से पहले इतना सुत्दर होता है और न तब जब कि उसकी पँखुड़ियाँ लटक जाती हैं । उसका भी असली समय वहीं है जब वह स्फुटोन्मुख होता हैं । मधुमाखी उसी समय उसपर निछावर होने के लिए मतवाली हो उठती हैं । एक दी निःद्वास छोड़ आँखें झुका कवि चुप हो गया । मिनट-पर-सिनट गुजरने लगे । सर्द पहाड़ी हुवा के झोंके से कवि के बुद्ध शरीर को समय का ध्यान आया । उसते देखा--मक्रील कीं फेनिल इवेतता यूवती की सुघड़ता पर विराज रही है। एक क्षण के लिए कब घोर दाव्दमयी युवती को भूल मूक युवती का सौंदयं निहारने लगा । हवा के दूसरे झोंके से सिहरकर उसने कहा-- समय अधिक होगया है घना चाहिए । कह लौटते समय मार्ग में कवि नें कहा--आज चयोदशी के दिन यह शोभा हूँ । कल और भी अधिक प्रकाश होगा यदि असुविधा न हो तो वया कुल भी माग॑ दिखाने आओगी ? और स्त्रयं ही संकोच के. चॉबुक की चोद खाकर बह हूँस पड़ा । . न... पेन कु कि में




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