प्राचीन भारत में यात्रा परम्परा | The Yatra Tradition In Ancient India

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्र _ उत्तरापथ कल देवपथ नामक महत्वपूर्ण शब्द का उल्लेख किया है। पाणिनि के अचुसार देवपथ के दो अर्थ थे एक अफककर दर विमानचारी देवताओं का मार्ग देवपथ कहलाता था| दूसरा लि वाले देवपथ के सामान ही ऊँचे पृथ्वी पथ को भी देवपथ कहा जाता था। कौटिल्य ने भी इसी बात की व्याख्या की है। कौटिल्य ने देवपथ का सम्बन्ध उस ऊँचे मार्ग से किया है जो किले की चहारदीवारी के ऊपर इन्द्रकोश या कंगूरो के पीछे बनाया जाता था। पाणिनी के सूत्र में उस लंबे मार्ग का उल्लेख किया है जो सारे उत्तरापंध्ियीं के गतायात की बृहद्‌ू धमनी था| यह मार्ग पाटलिपुत्र वाराणसी कौशाम्बी साकेत मथुरा शाकल तक्षशिला पुष्कलावती कपिशा रउररगेरने थे छत आदि नगरों से होकर वाद्ुह्ीक तक जाता. था|. फिममक्ठल्कसिकम-सन धन्य कण है। उत्तर भारत में यातायात एवं व्यापार कीं यह मार्ग गांघधार से पाटलिपुत्र तक जाता था जो कि कालान्तर में भी बना रहा। यूनानी लेखकों की मानना है कि इस ं अष्टाध्यायी 5.3.10 ्ै पैज्जे रघुवश 13.19 अर्थशास्त्र 2.3.17 अन्तरेषु द्विहस्तवितकाम पार्शवैंचतुर्गुणाया- मनु प्रकारतठहस्तायतं देवपथं कारयेत्‌ || पे अष्टाध्यायी 5.177 . उत्तरपथेनाहृतं च |




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