भारत की परम्परा | Bharat Ki Parampara
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
214
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बाद एक आनेवाली पीढ़ी को देते गए। इस गुलामी की मानसिकता के आगे अपनी
विवेकशील और तेजस्वी बुद्धि भी दब गई। यूरोपीय, या यूरोपीय जैसा बनना ही हमारी
आकांक्षा बन गई। देश को वैसा ही बनाने का प्रयास हम करने लगे। अपनी संरचनाएँ,
पद्धतियां, संस्थाएँ वैसी ही बन गईं।
गांधीजी १९१५ में दक्षिण अफ्रिका से भारत आए तब भारत ऐसा था। उन्होंने
जनमानस को जगाया, उसमें प्राण फूँके, उसकी भावनाओं को अपने वाणी और व्यवहार
में अभिव्यक्त कर, भारत के लिए योग्य हज़ारों वर्षों की परम्परा के अनुसार व्यवस्थाओं,
गतिविधियों और पद्धतियों को प्रतिष्ठित किया और भारत को फिर से भारत बनाने का
प्रयास किया। स्वतंत्रता के साथ साथ स्वराज को भी लाने के लिए वे जूझे।
परंतु स्वतंत्रता मात्र सत्ता का हस्तान्तरण (115 ° २०७४९) ही बन कर रह
गया । उसके साथ स्वराज नहीं आया । सुराज्य की तो कल्पना भी नहीं कर सकते।
आजं की अपनी सारी अनवस्था का मूल यह हे । हमे अपनी जीवनशैली चाहते
ही नहीं हैं। स्वतंत्र भारत में भी हम यूरोप अमेरिका की ओर मुँह लगाये बेठे हैँ । यूरोप के
अनुयायी बनना ही हमें अच्छा लगता है।
परन्तु, यह क्या समग्र भारत का सव है ? नहीं, भारत की अस्सी प्रतिशत
जनसंख्या यूरोपीय विचार ओर शैली जानती भी नहीं ओर मानती भी नहीं है । उसका
उसके साथ कुछ लेना देना भी नर्ही है । उनके रीतिरिवाज, मान्यताएं, पद्धतियां, सब
वैसी की वैसी ही हैं। केवल शिक्षित लोग उन्हें पिछड़े और अंधविशधासी कहकर
आलोचना करते हैं, उन्हें नीचा दिखाते हैं और अपने जैसा बनाना चाहते हैं। यही उनकी
विकास और आधुनिकताकी कल्पना है।
भारत वस्तुत: तो उन लोगों का बना हुआ है, उन का है। परन्तु जो बीस
प्रतिशत लोग ह वे भारत पर शासन करते है । वे ही कायदे-कानून बनावे है ओर न्याय
करते हैं, वे ही उद्योग चलाते हैं और कर योजना करते हैं। वे ही पढ़ाते हैं और नौकरी
देते हैं, वे ही खानपान, वेशभूषा, भाषा और कला अपनाते हैं (जो यूरोपीय हैं) और
उनको विज्ञापनों के माध्यम से प्रतिष्ठित करते हैं। यहाँ के अस्सी प्रतिशत लोगों को वे
पराये मानते हैं, बोझ मानते हैं, उनमें सुधार लाना चाहते हैं और वे सुधरते नहीं इसलिए
उनकी आलोचना करते हैं। वे लोग स्वयं तो यूरोपीय जैसे बन ही गए हैं, दूसरों को भी
वैसा ही बनाना चाहते हैँ! वे जैसे कि भारत को यूरोप के हाथों बेचना ही चाहते हैं, जिन
लोगो का भारत है वे तो उनकी गिनती में ही नहीं हैं।
इस परिस्थिति को हम यदि बदलना चाहते हैं तो हमें अध्ययन करना होगा -
पन्द्रह
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