ग्रंथत्रयी | Granthtryi

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Granthtryi by लालारामजी शास्त्री - Lalaramji Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ठत्थानुशांसन | “छ उन स्पशेन रसना आदि इंद्रियोंके द्वारा उनके वि बय स्पशें रस आदिको ग्रहण करता हुआ यह जीव मोहित होता है द्वेप करता है ओर राग करता है तथा मोहित होने ओर राग द्वेप करनेसे इस जीवके फिर कर्मोझा बंध होता है। इसपकार मोहके व्यूहमें ( मोहकी सेनाकी रचनामें ) प्राप्त हुआ यह जीव सदा परिश्रम्ण किया करता है ॥१९॥ तस्मादेतस्य मोहस्य मिथ्याज्ञानस्य चाहिष; | ममाहकारयोश्वात्मन्विनाराय कुरू्यमं || २०॥ इसलिये हे श्रातमन्‌ ! ये मिथ्यादशेन शरोर मिथ्या्नान दोनों ही तेरे शत्रु है अतए्व इन दोनोंको नाश करनेके लिये तथा मप्रकार ओर अहंफारकों नाश करनेकेलिये तू उद्यम कर ॥ २० ॥ बंघहेत॒पु सुख्येपु नश्यत्सु क्मशस्तव। ._ शैषो5पि रागद्रेपादिवंधहेतुर्विनरयति॥ २१॥ ` मिध्यादशेन मिथ्याज्ञान तथा म्रकार ओर अहंकार. बंधके पुरूष फारण हैं यदि ये नष्ट हो जांयगे तो अनुक्रमसे बाकी वचे हुए राग हेप आदि बंधके कारण भी अवश्य नष्ट हो जायेगे ॥ २१ ॥ ततस्त्वं वेधेतूनां समस्तानां विनारातः । वेधप्रणादान्युक्त; सन्न भ्रमिष्यति संखतौ ॥२२॥




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