अमर भारती | Amar Bhaaratii

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ अमर भारलौ-संदशैन ৬ हो सके, ऐसे टी {` चारा, उदाण्त एवं प्र रणात्रद विचारों से হস रित होकर ही सन्‍य आत्म चिन्तन को जानतिक चकालाय उपस्थित जन के समत्त मु € खोलता है। उसे कहने के लिए कुछ नहीं कहना, किन्तु, आत्मपीड़ा प्रसवमूलक भावना से दुःखी जन जीवन के कारण ही कुछ कहना है, संचित निधि दे उसी को विवरण: करना है। वाणी वेभव का प्रदर्शन उसका कतंव्य नहीं | उसका कर्सव्य है जन मन का सवोगीण उन्नयन | बहू तनोत्नति में विश्वास नहीं करता, बह मनोन्नति की कामन्ग करते हुए लोकोत्तर आनन्द का अनुभव करता है । इसी जिए जनता कं हृदय सिंहासन पर सन्त का स्थान शअ्रमिट है, क्योकि वह परिस्थितिजन्य प्रवाह में प्रवाहित नहों द्वोता, प्रवाद को मोड़ देता है । डसकी बाणुो व्यर्थ नहों जाती | वह विकार में संस्कार उत्पन्न कर, व्यक्ति कोषह्ी नहीं, जीवमात्र को परिष्कृूत कर घु भमर राष्ट्र का निमोण करता दे। अनुभव इस बाल का साझ्ी हे कि बाणी और विचारों के वाध्तविक खोन्दय में निखार तभी आता हे जब कि व कठोर से कठोरतम साधनाजीवन की प्रयोग- शाला में ढलकर निकलें | विपत्तियों में मो जो सम्पत्ति का अनुभव करला हे, छसी का वाचा बल साधनामूलक जीवन की यथार्था का अनुभव करा सकला है । जोषनविकास पर बिचार करने का. अधिकार केबल ऐसे ही व्यक्तियों कोह, जो स्वयं प्रतिकल बावाबरण में पत्त कर भी अनुकूल तत्वों की ष्टि कर स्वान्तः सुय का अनुभव कर सकं । काज्ञ द्वारा कवक्िव शेना




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