श्रीमन्मानसनामवैदना | Shrimanmanasanamvandana

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Shrimanmanasanamvandana by तुलसीदास - Tulaseedas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका । (१९ पाकर श्रीजानकीजीको खोजने चरे तब- व्याकुल होकर वानरो समेत समुद्र तटपर जा बैठे क्योंकि नाम-प्रभाव भूल गये थे | जब व्रह्माजीके अवतार चन्द्रमा मुनिकी कही हद कथा ( आधी ) संपातिद्वारा सुने | यथा-“ त्रेता ब्रह्म मतुज तद धरि है । ( वारुकांड ) # तासु नारि निसिचरपति हरि हैं ॥ ( आरण्य कां० ) तासु खोज पठइहिं प्रभु दूता। तिन्हें मिले तें होव पुनीता ॥ ( किष्कि० ) इतना सुननेसे इन्हें बल प्राप्त हुआ क्योंकि इसके आगे कहा है कि, लछीलहिं छाघर्दं जलनिधि खारा ॥ सहितसहाय रावण मारी । आनों इहाँ त्रिकूट उपारी॥ ” (कि० दो० २८-- ३० ) इत्यादि पुनः शेष आधीकथा ब्ह्लार्जाके ही अंशावतार श्रीजाम्बवंतजीसे सुना | यथा-“ यतना फरहु तात तुम जाई । सीतहिं देखि कहो सुधि आईं ॥ ( छुं० कांड ) तव লিল चुज- वल राजिकनिना। कौतुक छागि संग कपिसेना ॥ (० ) कपिसेनं संग सँहारि निसिचर राम सीति आनि ह ॥ ( लं० कांड ) त्रेैलीक पावन सुयश सुर मुनि नारदादि वखानि हैं ॥ ( उ० कांड ) ” (कि० दो० ३० ) उत्तरकांडका लक्ष्य-यथा-- ¢ रिपु रन जीति सुयस झुर गावत 1”! ( उ० दो० १) तथा नारद व सनकादि- कोंका आ २ कर यश गान करना उत्तरकांडमें स्पष्ट है, जब यह भी नामाथभूत चरित्र सुने तब इन्हे अप्रमेय बुद्धि प्राप्त हुई यह सुस्साकी पराक्षामें प्रकट है । कथासे ही वल बुद्धि प्रापिका प्रमाण-पथा-“” सुनि सव कथा समीर कुमारा । नॉवत भयो पयोधि अपारा॥ ” (उ० दो० ६६ ) पुनः यह कथा रामायणी छोगोंमें प्रसिद्ध है कि, युद्धोपरांत श्रीहनुमानजीने श्रीरामजीका ऐश्वर्यमिश्रित चरित्र शिलाओंपर लिखा | उस रामायणके प्रकट होनेपर अपनेकी शिथिलता अनुमानकर महर्षिजीने आकर इन्हें कुछ मॉगनेके लिये वचनबद्ध करके उसे समुद्रा- पण करा दिया तब पवननन्दनजीने भी कहा कि, हम कल्युगमें “ तुलसीदास नामक कविद्वारा अपनी इस रामायणकी 'भी बातें प्रेरणा कर २ के कहेंगे तो आपको इस प्रकार मना करनेका अधिकार न होगा, तब भक्तवत्सल श्रीरामर्जीने श्रीलक्ष्मणर्जीकों प्रेरणा करके शाप दिवाकर इन्हीं ( महर्षिजी ) को तुलसीदासजीका अवतार कराके अमीष्ट रक्खा ८ यह पूवे ही कह आये ) उपरोक्त रीतिसे श्रीहनुमानजीने भी नाम ही से चरित्र पाया | इस मानसमें उपरोक्त नोट-#यहों अयोध्याकांडके छोड़नेका हेतु यह है कि उसमें प्रधानतया श्रीमरतचरित्र है क्यों- कि, उसकें फल वर्णनमें कहाः है 'कि, “ भरतचरित कारे नेम० ” ( अ० दो० ३२६ ) ययपि यह भी नामाथभूत रामचरित्रांतगत है, तथापि यह मुद्रिकांकित नामका अर्थ है जो हनू- मानूजीके पास थी, वह मुद्रिका सती दिरोमणि श्रीजानकीजीने अपनी सँगुलीसे निकालकर भ्रीरामजीकों केषरट उतराई देनेके ख्यि दिया था, जब उसने नही छिया तो वह श्रीरामजीकि पास रही, उसे ही इन ( श्रीहनूमानजी ) को दिया था अतएवं यहां कविके विचारकी अगा- घता..विचारणीय है.॥ ^ .




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