भेदविज्ञानसागर | Bhedavigyansar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महविश्ञानमार ५ ~~~ পিপি শর ~~~ ~ साक्षात्‌ समक्भगवात, गुर या दालक उक्ष म॑ रशनेसे जो धन होता है यह भी द्रष्यश्ृठ है । देव और शुरु के क्ात्मा का जान ससमें है, परतु इप्त क्र त्मा का ज्ञान उसमें नहीं है, इससे वास्तव मे इस आत्मा फी अपेक्षा से यह अचेतन है। जीव अपने ग्रभाव की भोर दल्कर जब सच्चा समझता है व दरव्य्ुत षो निमित्त कषा जाता है, पन्त देव गुर श ख फी विसे घामप्यमाद मस्मे হা আলা। दैषरुरु फो षाणी से ओर श्ा्रोसे यह अत्मा प्रय ই। হুর तो अचेतन दे, उप्तमें पद्दीं ज्ञान नहीं भरा हे, इस दिए ड्ब्यश्रुव से ज्ञान गई द्वोठा, दब्यूठुव के ढक्ष से भात्मा सम्मप्त म॑ नहीं आता। आत्मा स्॒यश्ानखमायी है,एस शानखभाव फै द्वारा ভ্ী জালা হাত হীনা हैं। अपना हो सप्ताव जाता हे-यद सम्यग्ान है। (६) वर्तमान गान का आत्मा में एवप्र कर ते धर्म हा द्रायशुत से आत्मा भिन दे, बैव-गुर-शास््र से आत्मा म्िन्‍न है. इधसे उसझे उक्ष উ ছীনিবাভা যান মী द्रव्यत में श्लाजाता हे। ऐसा समझहर €स द्रयभुव की भोर के छक्ष को छोदफर, वर्तमात ज्ञान फो झातर म॑ रागरदित जि्ाछी शानख्राद की ओर पापुय करे तो अपना शाम रभाव ज्ञात हो। बर्तामाम ज्ञानपर्याय को पर की ओर एकाप रेषो अप होता भौर अपने प्रिच्चाछी झ्ानस्वभाव को झोर उयुप फरके वहूँ। एप करे तो धर्म द्वोता है! झानखभाव के आधार से जो ज्ञान दोता हे यह घ्य




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