श्रीपाल चरित्र | Shri Pal Charitra

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Shri Pal Charitra by बाबू ज्ञानचन्द्र जैनी - Babu Gyanchandra Jaini

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शोपालचरिअच । ११ सब ही दया धमं को धरें । परहिसा नदीं कोठः करे । अतिरमणीक हार बाजार । वसं तहां नर साहुकार ॥ ७३ ॥ बणजें नग निर्माठक चुनी। जिनको यश बोले सब दुनी । कहूँ होय बालक पेखणो । सो कछु ताहि कहत नहीं অগা ॥ ৩২ कहिं कहि नाटक नाचे ठाट। कहिं कहिं याचं बराह्मण भार । की छतीस वसं जहां रोय । कुल की रीतिन छाड़े कोय ॥ ७५ अपने अपने चित्त सब सुखी । तिह पुर माहि न कोठः दःखी । आस पास खाति का सुवाण । वहु बावडी कुवा निवाण ॥ ७६ अर तहां बाग रवाने खरे । सघन दाख दाडम दुम फरे। बहुत भान्ति अश्तफर रूख । देखत नयन न लागे भूख ॥७७॥ फे नारियल अंब अभंग । बहून फटी नारंग सुरंग । अगिणत्त केर! ओर खजुर । रह विजोरा तहां भरपुर ॥ ७८॥ कसम कदंब रहे बहु पल । रहे লহ तिनके रस भृल । तिह की शोभा कही न जाय । योजन वास रही महकाय॥ ७२॥ ॥ वस्तुवन्ध छन्द ॥ केवर। केतकी मरो मोगरो अरजाय गुलाब कुंजो अवर करणो र्यो तहां महकाय । (3४) नग + रतन । निर्मोलक् 5 अमोलक (जिनका. मुल्य नहीं हो सके) चुनी = चुन्मो (लाल रत्न) । दुनो = दुनियां । पेखणो = खेल । (७५) याचे = मागे। कल = जाति। (७६) खोतिका > खाई । सवाण (सोपान) = पड़ी। लिवाण ० भीलें तालावधादि/ (७9) रवाने = सुन्दर ! सघन = संघनं । दाडिम = अनार | द्रुम--दरखत। (<र)श्रंब = राम ग्रभग = वेशसार सुरंग = श्रे रगवाली । भ्रगणित = जो गिरे न जावें। बिज्ञोरा ल निम्बुकीजातका खट्टाफल जिसमें सुइंगल জান (३८) कसुस * फल ।




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