उत्तरपुराण | Uttarpuran

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Uttarpuran by पंडित पन्नलाल जैन - Pandit Pannalal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श उत्तरपुराण पुराण तक तो यहू पं० लाछारामजी शास्त्रीकृत धनुशद सहित मुद्रित प्रतिसे हुई है और उससे बाद किसी हस्तलिखित प्रतिसे हुई है। यहु प्रति शुद्ध मालूम होतो আবী जहाँ कहौं अन्य प्रतियोंसे विभिन्न पाठानर लिये हुए हैं। इस प्रतिक्रे पाठोंका उल्हेश मैंने 'इत्पपि कवित्‌” इन शब्दों-द्वारा किया है । २, उत्तरपुराण उत्तरपुराण, महापुराणका पूरक भाग है। इसमें अजितनाथको आदि लेकर २३ तोर्थंकर, सगरको आदि लेकर ११ बक्रवर्तोी, ९ बलभद, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण तथा उनके कालमें होनेवाले विशिष्ठ पुरुषोंके कथानक दिये गये हैं। विशिष्ट कथानकोंमें कितने ही कथानक इतने रोचक ढंगसे लिखे गये हैं कि उन्हें प्रारम्म कर पूरा किये बिना दीचमें छोड़नेको जो नहीं चाहता । यद्यपि क्लाठवें, सोलहवें, बाईसवें, तेईसर्वें और चोरीसवें तीर्थकरकों छोड़कर अन्य तीर्थकरोंके चरित्र अत्यन्त सक्षेपस्ै लिखे गये हैं परन्तु वर्णेन शेलीकी मघुरतासे बह संक्षेप भी रुचिकर दी प्रतीत होता है। इस प्रन्धर्मे न केवल पौराणिक कथानक ही है दिन्‍तु कुछ ऐसे स्थल भी हैं जिनमें सिद्धान्तकी दृष्टिसे सम्यग्दक्षनादिका भोर दादनिक दृष्टिसे सृष्टिबर्तुत्व आदि विषयोंका भी अच्छा विवेचन हुआ है । रचयिता गुणमद्राचायेक्ना ऐतिह/सिक विवेबत महापुराण प्रथम भागकी भूमिकामे विस्तारसे दे चुका हूँ अतः यहाँ फिरसे देवा अनावश्यक है। ३. उत्तरपुराणका रचना-स्थल--बंकापुर उत्तरपुराणकी रचना बंकापुरमें हुई है इसका परिक्षय प्राप्त करनेको मेरी बड़ी इच्छा थी परन्तु साधनके अभावमें उसके सफल होनेकी आशा नहीं थी। एक दिन विद्याभुूषण पं० के० भुजबली शास्त्री मूडबिद्रीने अपने एक पत्रमें संकेत किया कि यदि उत्तश्पुराणकी भ्रूमिकामे उसके रचता-हथल बंकापुरका परिचय देना धाहें तो भेज दूं । मैंने शारत्रोडीकी इस कृपाको इन भ्रवृष्टि जैसा समझ भूमिकामे बंकापुरका परिचय देना स्वीकृत कर लिया । फलस्वष्ठप शास्त्रीज्ञोने बंकापुरका जो परिचय भेजा है वह उन्हीके हब्दमि दे रहा हँ--- थे बंकापुर, पूता-बेंगलुर रेर वे लांइनमें हरिहरस्टेशनके समोपवर्ठों हावेरि रेलवेस्टेशनसे १५ मीलऊपर धारवाड जिलेमें है। यह वह पवित्र स्थान है, जहाँपर प्रातःस्मरणीय आचार्य गुणभद्र जीने शक संबत्‌ १८२० में अपने गुरु भगवज्जिनसेनक्र विश्वुत महापुराणान्तगेत उत्तरपुराणकों समाप्त किया था। आचार्य जिनसेन मौर गुणमभद्र जैव संसारके रुयातिप्र।प्त महाकवियोंमे-से हैं इस बातकों साहित्य संसार अच्छी तरह जानता है। संस्कृत साहित्यम्ें महापुराण वरतुतः एक झनृठा रत्न है। उत्तरपुराणके समाप्ति-कालमें अंकापुरमे जैव वोर बंकियका सुयोग्व पृत्र छोकादित्य, विजयनसगरके यशस्त्री एवं शासक श्रकालवर्ष वा कृष्ण राज ( द्वितीय ) के सामन्‍्तके रूपमें राज्य करता था। छोकादित्य महाशूर वीर, तेजस्वी और शत्रु- विजयी था। इसको ध्वजामें चित्छ वाचोलका विज्नू अंकित था और वह चेलल चीछकजका अनुब तथा चेल्डकेत (बंकेय) का पुत्र था। उस समय समूचा वनवास ( वनवाप्सि ) प्रदेश छोकादित्यके ही वशमें रहा। उपर्यक्त बंकापुर, श्रद्धेप पिता बीर बंकेयके तामसे लोकादित्यके द्वारा स्थापित किया गया था और उस जमानेमें उसे एक समृद्धिशाली जैत राजधानी होनेका सौमाग्य प्राप्त था। बंकेय भी सामान्य व्यक्तिनहीं था। राष्ट्रकूट नरेश तृपतुंगके लिए राज्यकाय में जैन वीर बंकेय ही पथप्रदर्श्ध था। मुकुझका पुत्र एरछोरि, एरकोरिका पुत्र घोर क्षोर घोरका पुत्र बंकेय था। यंकेयका प्रपितामह मुकुल शुभत्‌ग कृष्णराज का, पितामह एरकोरि शुमत्‌गके पुत्र ध्रुवदेवका, एवं पिता धोर चक्री गोविदराजका राजकायं-षारयि था। इससे सिद्ध होता है कि छोकादित्य ओर बंकेय ही नहीं, इतके पितामद्वादि भी राजकार्य पटु तथा महाशूर হ। चृपतुद्धको बंकेयपर छटुट श्रद्धा थी। वद्दी कारण है कि एक लेखमें तुफ्तुंगने बंकेयके सम्बन्धमें




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