आदिपुराण (द्वितीय भाग) | Adipuran (Dwitiya Bhaag)

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Adipuran (Dwitiya Bhaag) by पन्नालाल जैन -Pannalal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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षड्विश्चतितमं पवं ९ पुरः पाद्रातमाईइवीयं रथकटया च हास्तिकम्‌ । क्रमान्निरी युरावेश्य सपताक रथ प्रभोः ॥७७॥ रथ्या रध्याईवसंह्ाहुस्यितंह मरेणुभिः। वलश्नोदाश्चमाव्यौम सथुखपेतुरि स्वयम्‌ ॥७८॥ रोक्मे रजोमिराकीण तदा रेजे नमोऽजिरम्‌ । स्पृष्टं बाखातपेनेव पट्वासेन वाततम्‌ ॥७६॥ नैः शनेज॑नेमुंक्ता विरेजः पुरवीधय: । कल्ोकेरित्र वेलोस्मैमेहाब्थेस्तीरभूमयः ॥८०॥ पुराइगनामिरुन्मुक्ताः सुमनोब्जलयों पपतनू । सोधवातायनस्था भिद्द शिपाते: सम॑ प्रमो ॥८१॥ जयेश विजयिन्‌ विर्वं विजयस्व दिशो दश्च । पुण्याशिषां इतेरि्थं पौराः प्रभुमयू युजन्‌ ॥८२॥ सभ्राट्‌ पदयक्नयोध्यायाः परं भूति तद्रातनीम्‌ । शनेः प्रतोर्खीं' ` संप्रापद्‌ र्नतोरणमभासुराम्‌ ॥८३॥ पुरो बहिः पुरः पडचान्‌ समं च चिभ्ुनाऽप्नुना । दषे दष्टिपयन्तमसङ्कयमिव तदु्रलम्‌ ॥८४॥ जगतः प्रसवागारादिव तस्मात्‌ पुराद्‌ बलम्‌ । निरियाय निरुच्छवास दनेरारुदगोपुरम्‌ ॥८५७॥ किमिदं प्रलूयक्षोभात्‌ छुलितं वारिधेजंलस्‌ । किमुत जिजगत्सर्गः' प्रत्यग्रोड्य विजम्मते ॥८६॥ इत्याशइ्य नभोभाग्मिः सुरः साइचयमीक्षितम्‌ । प्रससार बल विष्वकपुराश्षियाय चक्रिण: ॥८७॥ রি সি পি সি योद्धाओंकी एक अपूब॑ सृष्टि ही उत्पन्न हुई हो | ७६ ॥ सबसे पहले पेदल चलनेवाले सेनिकोंका समूह था, उसके पीछे घोड़ोंका समूह था, उसके पीछे रथोंका समूह और उसके पीछे हाथियों का समूह था। इस प्रकार वह सेना पताकाओंसे सहित महाराजके रथकों घेरकर अनुक्रम- से निकली ॥७७।॥ जिन मागोसे वह सेना जा रही थी वे मार्ग रथ और घोड़ोंके संघटनसे उठी हुई सुवणमय धूलिसे ऐसे जान पड़ते थे मानों सेनाका आघात सहनेमे असमथं होकर स्वयं आकाशमें ही उड़ गये हों ॥ ७८ ।। उस समय सुवर्णमय धूलिसे भरा हुआ आकाशरूपी आँगन' ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो बालसूयंकी सुनहली प्रभासे स्पशं किया गया हो, ओर सुगन्धित चर्णसे ही व्याप्त हो गया हो ॥७५९॥ धीरे-धीरे लोग नगरकी गलियोंको छोड़कर अगे निकल गये जिससे खाली हुई वे गलियाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो ज्वारभाटासे उठी हुई लहरोंके चले जानेपर खाली हुईं समुद्रके किनारेकी भूमि ही हो ।| ८० ॥ उस समय बड़े-बड़े मकानोंके झरोखोंमें खड़ी हुई नगर-निवासिनी स्त्रियोंके द्वारा अपने-अपने कटाक्षोंके साथ छोड़ी हुईं पुष्पांजलियाँ महाराज भरतके ऊपर पड़ रही थीं ॥८१॥ है ईश, आपकी जय हो, हे विजय करनेवाले महाराज, आप संसारका विजय करें और दरों दिशाओंको जीतें; इस प्रकार सैकड़ों. पुण्यादीर्वादोंके द्वारा नगरनिवासी लोग भरतकी पुजा कर रहे थे-उनके प्रति सम्मान प्रकट कर रहे थे ॥ ८२॥ इस प्रकार उस समय होनेवाली अयोध्याकी उत्कृष्ट विभूतिको देखते हए सम्राट्‌ भरत धीरे-धीरे रत्नोंके तोरणोंसे देदीप्यमान गोपुरद्वारको प्राप्त हुए ॥ ८३ ॥ उस समय महाराज भरतको नगरके बाहर अपने आगे-पीछे और साथ-साथ जहाँतक दृष्टि पड़ती थी वहाँतक असंख्यात सेना ही सेना दिखाई पड़ती थी | ८४ || जगत्‌की उत्पत्तिके घरके समान उस अयोध्यापुरीसे वह सेना गोपुरद्वारको रोकती हुई बड़ी कठिनतासे धीरे-धीरे बाहर निकली ।॥८५।। क्या यह्‌ प्रख्य कालके क्षोभसे क्षोभको प्राप्त हुआ समुद्रका जरू है ? अथवा यह तीनों लोकोंकी नवीन ` सृष्टि उत्पन्न हो रही है ? इस प्रकार आशंका कर आकाझमें खड़े . हुए देव लोग जिसे बड़े आश्चयंके साथ देख रहे हैं ऐसी चक्रवर्तीकी वह सेना नगरसे निकल- कर चारों ओर फेल गयी ॥|८६-८७॥। १ पदातीनां समूह:। ৭ - লম্বা ल०। ই निर्गच्छन्ति सस्‍्म। ४ रथनिषुक्तवाजी। হ্গাহল द०, छल०, इ०। ५ उत्पतन्ति स्म। ६ स्पष्ट ल०ण। ७ चाततम्‌। ८ जलविकारोत्थैः “अब्ध्यम्बुविकृता बेला इत्यभिधानात्‌ । € -मपृजयन्‌ ल० । १० सम्पदम्‌ । ११ तत्कालजाम्‌ । १२ गोपुरम्‌ । १३ उच्छवासान्तिष्करान्तं यथा भवति तथा । ससङ्कटमिति यावत्‌ । १४ त्रिरोकसृष्टिः । ३ निधि येकि काकि चित चि३# पैक“ चिकर




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