तत्वार्थवृत्ति | Tatvaarthavratti

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Tatvaarthavratti by महेन्द्रकुमार जैन - Mahendrakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० तत्त्वार्थवृत्ति महाप थ्वीमं, जल जलमें, तेज तेज में, वायु वायुमे और इद्रिया आकाजभमे लीन हो जाती है । लोग मरे हए मनुष्यको खाट्पर रखकर ले जाते है; उसकी निन्दा प्रशसा करते है । हडंडिया उजली हो बिखर जाती हे और सब कुछ भस्म हो जाता है । मूर्ख लोगजो दान देते हे उसका कोई फल नही होता । आस्तिक- वाद झूठा है। मूर्ख और पडित सभी शरीरके नष्ट होते ही उच्छेदको प्राप्त हो जाते ह । मरनेके बाद कोई नहीं रहता ।” इस तरह अजितका मत उच्छेद या भौतिकवादका प्रस्यापक था । (२) मक्खलिगोशालका मत-- सत्त्वोके क्लेशका कोई हेतु नही है,प्रत्ययः नहीं है । बिना हेतुके ओर त्रिना प्रत्ययके ही सत्त्व क्लेश पाते हे । सत्त्वों की शुद्धिका कोई हेतु नहीं है, कोई प्रत्यय नहीं है विना हेतुके और बिना प्रत्ययके सत्त्व शुद्ध होते है । अपने कुछ नहीं कर सकते हं, पराये भी कुछ नहीं कर सकते है, (कोई )पुरुष भी कुछ नहीं कर सकता है, बल नही हं, वीर्यं नही हे, पुरुषका कोई पराक्रम नही है । सभी सत्त्व, सभी प्राणी, सभी भूत और सभी जीव अपने वशमे नही हे, निबेल, निर्वाय, भाग्य जर संयोगके फेरसे छ जातियोमे उत्पन्न हो सुख और दु ख भोगते हे । वे प्रमुख योनियाँ चौदह लाख छियासठ सौ हे । पाच सौ पाच कर्म, तीन अधे कम ( केवठ मनसे दरीरसे नहीं ), बासठ प्रतिपदाएं ( मार्ग ), बासठ अन्तरकल्प, छे अभिजातियाँ, आठ पुरुषम्‌मिर्यो, उन्नीस मो आजीवक, उनचास सौ परिव्राजक, उन- चाम सौ नाग-आवास, बीस सौ इद्रविया, तीस सौ नरक, छत्तीस रजोधातु, सात सज्ञी ( होजवाके ) गर्भ सात असज्ञी गर्भ, सात निग्रेन्थ गभ, सान देव, सात मनष्य, सात पिशाच, सात स्वर, सात सो सात गोट, सात सौ सात प्रपात, सात मौ सात स्वप्न, और अस्मी टाव छोटे वडे कल्प हे, जिन्हे मूखे ओर पटित जानकर जार अनुगमन कर दु.खोका अत कर सकते है । वहा यह नही हं-इस शील या ब्रत या तप, ब्रह्मचर्य॑से म अपरिपक्व कर्मको परिपक्व करूँगा । परिपक्व कर्मको भोगकर अन्त करूंगा । सुख दुःख द्रोण (-नाप) से तुले हुए हैं, ससारमे घटना-बढ़ना उत्कर्ष, अपकर्ष नहीं होता । जसे कि सूतकी गोली फेकनेपर उछलती हुई गिरती है, वैसे ही मूव्ं और पडित दौडकर-आवागमनमे पडकर, दुखका अन्त करेंगे । गोशालक पूर्ण भाग्यवादी था। स्वर्ग नरक आदि मानकर भी उनकी प्राप्ति नियत समझता था, उसके लिए पुस्षार्थ कोई आवश्यक या कार्यकारी नहीं था। मनुष्य अपने नियत कार्यक्रमके अनुसार सभी योनियोमे पहुँच जाता है । यह मत पूर्ण निर्यातवादका प्रचारक था । | (३) पूरण कह्यप-- करते करति, छेदन करते, छेदन कराते पक्राते पक्रवाते, शोक करते, परेशान होते, परेशान कराते, चलते चलाते, प्राण मारते, बिना दिये केते, सेव काटते, गाव लटते, चोरी करते, बटमारी करते, परस्त्रीगमन करते, झूठ बोलते भी, पाप नहीं किया जाता। छरे से तेज चक्र द्वारा जो इस पथ्वीके प्राणियोका (कोई) एक मासका खलियान, एक मासका पुज्ज बना दे , तो इसके कारण उसको पाप नही, पापका आगम नहीं होगा। यदि घात करते कराते, काटते, कटाने, पकाते पकवाते, गगाके दक्षिण तीरपर भी जाये ; तो भी इसके कारण उसको पाप नही, पापका आगम नही होगा । दान देते, दान दिलाते, यज्ञ करते, यज्ञ कराते, यदि गगाके उत्तर तीर भी जाये, तो इसके कारण उसको पुण्य नही, पुण्यका आगम नहीं होगा । दान दम सयमसे, सत्य बोलनेसे न पुण्य है, न पुण्यका আবাল £ |? । पूरण क्यप प्ररलोकमे जिनका फट मिलता है ऐसे किसी भी कमंकों पृण्य या पापरूप नहीं समझता था। इस तरह प्रण कश्यप पूर्ण क्रियावादी था। (४) प्रक्र८ कात्यायनका मत था-- यह सात काय ( समूह ) अक्ृत-अकृतविध-अनिर्मित +-निर्माणरहित, अबध्य-कटस्थ,स्तम्भवत्‌ (अचल) हूँ । यह चल नही होते, विकारको प्राप्त नही होते, न एक दूसरेको हानि पहुँचाते हे, न एक दूसरेके सुख, दुख या सुख-दुखके लिए पर्याप्त हे । कौनसे सात ?




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