खून के धब्बे | Khoon Ke Dhabbe

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Khoon Ke Dhabbe by मोहन सिंह सेंगर - Mohan Singh Sengar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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युग-सन्धि उस दिन साँकको जब दिन-भरका थका-हारा खग अपने धोंसले पर लौया, तो उसने देखा कि कोई अ्परिचित खगी उसके घोंसलेके बाहर डालपर बैठी है उसे देखकर भी जैसे खगने न देखा हो, रेखा श्रजान बनकर वह उसके पाससे फुदककर अपने घोंसलेमें चला गया । पर घोंसलेमें वह निर्श्चित होकर नहीं बेठ सका | उस अपरिचित किंतु तरुणी खगीकी उपस्थितिने उसके मनमें एक अ्रजीब उथल-पुथल पैदा कर दी थी | उसका दिल तेजीसे बुक घुक्‌ कर रहा था। न जाने क्‍या सोच कर उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा और उसके पहुई जैसे दिन-भरकी थकान भूलकर फिर आकाश नापनेको उतावले हो उठे । दबे पाँव वह धीरे- धीरे अपने घोंसलेके द्वारपर आया और उम्रककर बाहर बैठी हुई खगीकी और देखने लगा। इसी समय उसकी खगीसे चार आँखें हुईं | वह भी न मालूम कबसे अपनी गदंन ऊपर उठाये उसके द्वारपर पलक-पाँवड़े बिछाये थी । दोनोंने एक-दूसरेकी आँलोंकी भाषा पढ़ी ओर मुस्कराये | पर अपनी तस्कर- बृत्तिमें पकड़े जानेके कारण खग कुछ मेंप-सा गया और उसने अपनी आँखें नीची कर लीं | यह देख खगी ठहाका मारकर हँस पड़ी। उसका ऐसा करना मानों खगके पौरुषको चुनौती थी | उससे भी अब रहा न गया | फुदककर वह धोंसलेसे बाहर डालपर आ बैठा और बनावटी क्रोधके साथ बोला--- च्प्रोजी, ठम हँसो क्‍यों ! मेरे ही धरपर आकर मेरी ही हँसी उड़ानेकी तुम्हारी यह मजाल कैसे हुई ? खगी पहले तो कुछ सकुचाई, फिर जरा सहमकर बोली--'्यों, क्‍या




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