जीवन का सत्य | Jivan Ka Satya

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Jivan Ka Satya by मोहन सिंह सेंगर - Mohan Singh Sengar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जीवर्न की सत्य ११ नौकरानी के तौर पर अ्रवश्य रख लेंगे । इस समय में बड़े सद्धूट में हूँ । झ्राप अवश्य मेरी कुछ सहायता करें ।' में श्रब तक आगन्तुका से इतनी नम्नता और शिष्टता से पेश आ रहा था, जैसे कोई बड़े भारी लांडं की पत्नी मुभसे मिलने श्राई हो ! पर जब उसने नौकरानी के तौर पर रहने की बात कही, तो जैसे मेरे पाँवों के नीचे से ज़मीन ही खिसक गई । अपने-आपको सँभालते हुए मेने कहा-- लेकिन मुभे तो इस समय किसी नौकरानी की जरूरत नहीं ह ।' जरूरत नहीं ? या श्राप मुभसे पिण्ड छुड़ाने के लिए ऐसा कह रहे है ।' तुम जो भी समभो--मेंने मुस्करा कर कहा । सहसा उसकी सजल श्रांखों से भ्राग-सी निकलने लगी । भौहों में बल डालते हुए उसने कहा--लेकिन आप इस व्यंग्य शौर क्रूरता के साथ हँस क्‍यों रहे हें ? क्‍या में पागल हूँ ? बदशकल हूँ ? या तमाशा हूँ ? में आपसे भीख नहीं चाहती; परिश्रमपूर्वक श्रापकी सेवा करके सिफं गुज़ारेभरर की सहायता चाहती हूँ । इसमें हंसने की क्या बात ह ?' श्रोह्‌, श्राप तो बुरा मान गईं । निस्सन्देह मेरा स्वभावही हंसने का हं, लेकिन श्राप यह कदापि न समभे कि मे श्रापकी गरीबी या बुरे हाल पर हंस रहा हं । जब आप हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियो के बारे मं इतना जानती हें, तो मुझे विश्वास है कि आपको मेरे बारे में किसी प्रकार की ग़लतफ़्हमी नहीं होगी । दरअसल मुभे इस समय किसी नौकरानी की जरूरत नहीं है, श्रन्यथा मँ श्रापको श्रवश्य रख लेता । श्राप इस लाचारी के लिए मुभे क्षमा करे ।' क्षमा करू ?--सजल श्राँखों से मेरी श्रोर देखते हुए उसने कहा-- “मे भ्रापको क्षमा कर सकती हूं, पर मेरा पेट तो मुझे क्षमा नहीं करेगा ।' दरअसल मुभे बड़ा खेद हे कि में आपकी कोई सहायता नहीं कर सका ।




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