दाखुन्दा | Daakhunda

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Daakhunda by राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चद्टानके पीछेकी तरफ चल पडी, जहाँ नौजवान बैठा हुआ था और ऐसी सूरत बनाये, मानो नौजबानके वहाँ होनेका उसे पता ही नहीं | उसने आश्चय प्रगट करते कहा---“यादगार ! तू यहाँ क्‍या कर रहा ? “तू यहाँ क्‍या कर रही ९? पानी लेने आई--कहकर वह पानीके किनारेकी तरफ चल पड़ी । “पानी लेने आई ! मैंने तो समझा, आग लेने आई, जोकि इतनी जल्दीमें हे | गुलनारने मुस्कुराकर तृबेको नीचे रख दिया और खुद मी चद्दानपर बैठ गई। फिर एक क्षण तरुणकी चिन्तापूर्ण आँखोंकी ओर नजर डालकर कहा--- --सच कह, यादगार ! तू यह क्‍या कर रहा है ! --पहले तू कह कि यहाँ क्‍यों आई ? --मैं पानीके लिग्रे आईं; देख, यह रहा तृबा--कहते लड़कीने लौकेकी तरफ इशारा किया | --में यहाँ भेंड़े चरा रहा हूँ ; देख, यह रही चरवाहीकी लाठौ-- कहकर लाठीकी तरफ इशारा किया | --यादगार ! मैंने ऐसी अवस्थामे तुके कभी नहीं देखा। आँखें बता रहीं कि तेरे दिलमें कोई बड़ी भारी चिन्ता है, मन बेहद परेशान है । सच बता, क्या बात है ? --ऊुड नहीं मृकेदुश्रा। मनमी मेराठीक है। हाँ, एक बात तुझसे कहना चाहता था, कहूँ या न कहूँ, इसी दुविधामे पडा हूँ। “अगर मुर्के खुश रखना चाहता है, तो कह डाल । चाहे बात कितनी ही बुर क्यो न हो, मे उसे सुनकर रज्ञ न होर्जगी । --बात बुरी नहीं, अच्छी है। खासकर तेरे लिये शुभ और आनन्‍्दकी बात है। बता ही क्‍यों न दूँ ! पुराने कुर्तेकी ओर इशारा करते हुए गुलनार ने कहा--बस, यही ७




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