आखिरी चट्टान तक | Akhiri Chattan Tak

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Akhiri Chattan Tak by मोहन राकेश - Mohan Rakesh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अब्दुल जब्बार १३ बेठकर हम मील के उस भाग में पहुंच गये, जहाँ से चारों श्लोर के किनारे दूर लगते थे। वहाँ पहुँचकर अविनाश के हृदय मं भावुकता (जिसे कुछ लोग सस्ती भावुकता कहेंगे) जाग आयी । उसने एक नज़र पानी पर ढाली, ए5 नज़र दूर के किनारों पर, भौर पणता चाहने वाले कलाकार के ढंग से कहा कि कितना अच्छा होता यदि हम में से इस समय कोई कुछ गा सकता ! “गा तो में नहीं सकता” उसकी बात सुनकर बूढ़े मल्‍लाह ने कहा ““श्रगर हुजूर चाहं तो चन्द्‌ ग़ज़लें 'तरन्नुम के साथ अर्ज़े कर सकता ह, श्रौर माशाल्लाह सुस्त ग़ज़ल दें ।?” “जरूर !”” हमने उत्साह के साथ उसके प्रस्ताव का स्वागत किया । उसने एक राज़ल छेड़ दी । उसका गन्ना बुरा नहीं था ओर सुनाने का लहजा शायरों वाला हो था । ग़ज़ल का विषय श्यटगारिक था--उस खोमा तक कि यदि वद्द हिन्दी की कबिता होती तो डसे अश्लील कहा जाता । यही उसका चुस्त तत्व था । जिन शायर साहब को वह गजल थी उन्हें में विभाजन से पहले लाहौर में जानता था। उन दिलों वे वैसी ग़ज़लें लिखने के कारण तरक्‍क़ी पसन्द शायर कहे जाते थे । সন্তু जब्बार ने एक के बाद दूसरी ग़ज़ल सुनाई, फिर तीसरी! में लेटा हुआ उसे देख रहा था । वह उस सर्दी में भी केवल एक तहमद्‌ य्व था। गले में एक बनियान तक नहीं थीं। उसकी दाढ़ी के ही नहीं छाती तक के बाल सफ़ेद हो चुके थे, परन्तु डांडं चलाते समय उसकी बांहों की मांस पेशियां उसकी फ़ोलादी शक्ति का परिचय देती थीं । बह विभोर होकर ग़ज़ल सुना रहा था अतः उसके चेहरे को भाव भंगिमा भी दशनीय थी । पंक्ति के अन्त तक पहुँचते-पहुंचते उसका सिर आप ही रूम जाता था। दाद तो उसे मिल ही रही थी । उसकी স্সান্ত্ साठ से कम नहीं थी, पर अब भी उसके रोम रोम में जीवन दिखता था ।




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