भारतीय साहित्य | Bhartiya Sahitya

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Bhartiya Sahitya by विश्वनाथ प्रसाद - Vishvnath Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जनवरी १६६०] सन्तो द्वारा नये श्रथंदान की क्षमता ११ कहा गया है। जान पड़ता है सूर्य भ्रौर चन्द्र तथा सुषम्णा की पुरानी कहानी योग-मागं के साहित्य में भी बराबर याद की जाती रही होगी। 'सुषुम्णा' का शाब्दिक श्रथं है सुसुप्त' इड़ा और पिगला नाड़ियाँ बराबर चला करती हैँ जब कि सुषुम्ना सुप्त रहती है। केवल साधना के द्वारा ही उसका उद्बोधन होता है। निगृ ण-मार्गी संतों ने इस नाड़ी को 'सुखमनि' कहा है। नाड़ो शब्द का भी एक रूपान्तर कर लिया गया है-- नाड़ी इडा और विंगला में से पिगला को तो ज्यों-क्रा-त्यों रहने दिया गया, लेकिन इड़ा को इंगला बना दिया गया । 'इड़ा' कैसे 'इंगला' बन गई यह एक रहस्य है; आगे इस पर विचार करेंगे । क ससुषृम्णा' दाब्द के श्रपरंश्च रूप ससृखमनि' का व्यवहार संतों ने मनोवहा सुषम्णा नाड़ी के श्र में ही किया है । परन्तु कितने ही ऐसे स्थल हैं जिनसे स्पष्ट प्राभासित होता है कि सन्‍तों के मन में इसका एक और भी भ्रथे है, सुखमनि' 'सुखचित्त' ते । जैसे ऊपर बताया गया है कि अपश्रंश की 'इ? विभक्ति तृतीया और सप्तमी दोनों ध्र्थों में प्रयक्त होती हैं । इस प्रकार 'सुखमनि” का श्रथ॑ हुश्रा 'उस मार्ग से जिससे मन में सुख या आनन्द बना हो ।' दो-चार उदाहरण इस बात को स्पष्ट कर देंगे । मगर भ्रभी इतना ही । झागे अवसर मिलेगा । बंकनाली' (वकनाड़ी, टेढ़ी नाली) कबी र, दादू श्रादि संतों ने भ्रनेक स्थलों पर मन के बंकनालि' के रस पीने की चर्चा की है। साधारणत: “बंकनालि' का श्रथ्थं सुषुम्ता ही समभा जाता है, परन्तु यहं शब्द ठीक सुषुम्ता का वाचक नहीं है। मेरु-दण्ड में सुषुम्ना वक्रनाड़ी नहीं है। दो स्थानों पर उसमें वक्रताश्रातीदहै, एक तो बिन्दु कै प्रथम स्फोट कै समय, जो शब्द के रूप में 'पश्यन्ती' होती है श्ौर प्राण के रूप में 'डंडभ' पवन है। दूसरी वक्रता अ्रन्तिम प्रवस्थामं ब्रह्म-रन्ध् के पार प्राती है। शब्दके स्तर पर वह मात्रिका-विलय' है झोर प्राण के स्तर पर ब्रह्म-रन्ध्र का भेद । दोनों ही नाथ और कौल साधको की साधना के विषय हैं। निर्गुणमार्गी भक्तों ने उसमें नवीन भ्रथं का योग किया। 'सुखमनि माग सहज समाधि का मार्ग है । इसकी प्रथम वक्रता पहली 'सुरति' है भौर द्वितीय वक्रता दूसरी 'सुरति' है। 'सुरति' शब्द के प्रसंग में हम इसकी व्याख्या विस्तार से करेंगे । सन्तो कै भ्रनृसार “वंकनालि' जर्हां एक प्रोर वक्रनाडी है वहीं दूसरी श्रोर टेढ़ी नली से बहते हुए प्रेम-रस की वाहिका ই। भ्रलेख, श्रलख (श्रलक्ष्य, प्रनाकलनीय) अलेख' या 'अलख' शब्द संस्कृत के श्रलक्ष्य शब्द से बना है, भ्र्थ॑ है---जो देखा न जा सके या लक्ष्य न किया जा सके। परन्तु संतों ने 'अलेख' शब्द में एक और प्रथं जोड़ दिया है--जिसका लेखा या प्राकलन न किया जा सके । इसी को ध्यान में रखकर कबीर ने कहा है 'लेख समानता श्रलेख में ।'




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