श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक | Moksha Marg Parkashan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८4 शानपिपासुश्रोंकी तृप्तिका कारण बनी हुई है और श्रापके वचन प्राचीन आचार्योंको तरह ही प्रमाण माने जाते हैं। स्वाभाविक कोमलता, सदाचारिता, जन्म-जात विद्त्ताके कारण ग्रूहस्थ होकर भी आचायकल्प' कहलानैका सौभाग्य आपको ही प्राप्त है । धर्म-जिज्ञासुस लेकर प्रीढ़ विद्वात सभीके लिये यह 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' ग्रन्ध गति उपयोगी सिद्ध हुआ है । श्राज तक ३४२०० पुस्तकें हिन्दी, गरुतराती, मराठीमें छप चुकी हैं, वही इसकी उपयोगिता सिद्ध करती हैं । पण्डितजीका जन्म संवत्‌ १७९७छके लगभग जयपुरके खंडेलवाल जैन परिवार तथा 'गोदीका' मोन्नमें हुआ । जोगीदास आपके पिता थे और माताका नाम रम्भावाई था। बचपनमें ही इनकी व्युत्पन्नमतिकों देखकर इन्हें खूब पढ़ाकर योग्यतम पुत्र बनानेका निशुचय कर, ४-५ वर्षकी अ्रवस्थामें इन्हें पढ़ाने बठा दिया गया। वाराणसीसे एक विशेषविद्वान इनको पढ़ानेके लिये बुलाया गया । पं० टोडरमलजीको १०-१२ वर्षमें ही व्याकरण, न्याय एवं गणित-जैस कठिन विपयोंमें गम्भीर ज्ञान प्राप्त हौ गया। [ एक जनश्रुति श्री टोडरमलजीके जीवनके वारेभे सुनी जाती है कि-- एके नैन विद्वानने निमित्तज्ञान द्वारा जाना कि यह बालक अवश्य अपने जीवनमें धर्म- धुरंधर वीरपुरुष होगा..., पश्चात्‌ उन्होंने जयपुरके दीवान रतनचन्दजीसे निवेदन किया कि यदि इस वालकको पढ़ानेके लिये मुझे समपित कर दें तो अल्प समयमें ही सर्वोत्तम विद्वान बन जायगा । तब दीवान सा०» ने बड़े टूर्पके साथ, गाजे वाजेके साथ वालके माता पिताके पास जाकर उसे पढ़ानेका सुझाव दिया, जिसे माता-पिताने सहर्ष स्वी- कृत कर लिया । बालक थोड़ेसे समयमें ही पढ़कर आद्यातीत विलक्षण बड्धिमान बन गया | | इनकी स्मरणश्क्ति विलक्षण थी, गुरु जितना उन्हें पढ़ाते थे उससे श्रध्रिक याद करके उन्हें सुना देते थे | इनके शिक्षक उनकी प्रतिभा एवं सातिथय व्यत्वन्नमति- को देखकर दद्ध रह्‌ जात शोर इनको सूक्ष्म: बुद्धिकी भूरि भूरि प्रशंसा करते थे | मोक्षमाग प्रकाशक ग्रन्यकी भूमिकार्म स्वर्थंका परिचय दिया है कि “मैंने हस कालभे भनुष्यपर्याय पायी, वहाँ मेरा पूर्व संस्कारसे वा भला होनहार था इसलिये मेरा जनबमर्में अ्रभ्यास करनेका उद्यम हुआ । वह्‌ कथन श्रापकी पर्वभवक्ती साधना श्रौर वर्तमान असाधारण योग्यताको सूचित करता है। श्राप जन्मजबाहर तो थे ही, अपूर्य पुरुषाथके बल द्वारा आप महत्वपूर्ण ग्रात्मप्रज्ञाके घनो वन गये | ग्रताव थोहे ही




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