आनन्द प्रवचन (सातवा भाग ) | Anand Pravachan (Vol-7)

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Book Image : आनन्द प्रवचन (सातवा भाग ) - Anand Pravachan (Vol-7)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रज्ञा-्परिपह पर विजय कैसे प्राप्त हो ” ५ इसलिए बन्युओं, हमे मिथ्याज्ञान अथवा अक्नान के अन्तर को समन्नते हुए मम्यवलान या साध्यात्मिक जान दामि करना चाहिए। ऐसा करने पर ही हमें आत्म-कल्याण का मार्ग हृष्टियोचर होगा और हम संवर कौ आराधना बारते हए कर्मों की निर्ज रा मे भी सलरन हो सकगे । हमारे जाध्यान्मिक ग्रन्थ स्पप्ट बहते है--- नाण च दसण चेव, चरित्त च तवो तहा। एस मग्गोत्ति पन्‍नत्तो, जिणेहि वरदसिहि ॥। --श्री उत्तराध्ययनमघ्र, श्र° उ अर्थात्‌ जान, दर्शन, चारित्र एवं तप, इनका आराधन ही मोक्ष का मार्ग है, ऐसा सर्व एवं सवदर्शी जिनराज कहते है । {जिन मगवान सर्वदर्णी होते 2 और वे एक स्थान पर रहकर ही सत्र कुछ देख लेते है | उनकी दिव्यहृप्टि के सामने पर्वत, दीवाल, परदा या अन्य कोई भी पस्लु बाघक नहीं वन सकती । जबकि हमारे समक्ष तो एक साधारण परप्ष या परदा भी लगा दिया जाय तो उसके दूसरी ओर क्या हो रहा हैं यह एम नहीं देख सकते ! आप विचार करेंगे कि आमिर हमारे समान मानवन्देह पाकर भी उन्हें ऐसी दिय्यरृप्टि फँसे प्राप्त हो गई और हमे वह वयो नहीं मिल पाती ? इसका रपप्ट और सत्य समाधान यही हैं कि उन महापुरपों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र एव तप थी सम्यकू जाराधना की थी । अपनी आत्मा के निज स्वरूप की पह- पान करते हुए उन्होंने विषय-विकारों का सर्व था त्याग करके अपनी आत्मा को निर्मेल बनाया था | क़ोघ, मान, माया और लोस का उनके मानस के सवधा निष्कासन हो चुका था । ज्ञान के गर्व को वे यथायं मे घो ऽग मानते थे और उसमे कोसो दूर रहते थे । रिन्‍्तु हम बया ऐसा कर पाते है * आध्यात्मिक ज्ञान तो दूर की दान 5. चार पुरतयों पढ़कर हो हम घमड़ में चूर होकर औरा को झजानी हद इसके आपको महातानी समझने लगते है । इसवा परिणाम प्ट লী উ সি दृष्टि तो दूर, जो भी हम पढते है वहु मी हना जन ই =-= = दनदर पनन पा फारण বলনা 8। দে কা তল উকীলললী আত भारमसा থান না वारण वनता रै अनन नन ~ च -न्स्ज्न पमे दर रहन हण सममाव रना र्य ' = == ~~ == जर्‌ हन्त रै यहो षान का सत्वा नाम তালি জল লতা ওলি লী লল্লার্ট হল मक्ता} } पर শোভা सा हृष्ट শী




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