स्तुतिविद्या | Stutividhya

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Stutividhya by पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityacharyश्री वसुनन्धाचार्य - Shri Vasunandacharya

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श्री वसुनन्धाचार्य - Shri Vasunandacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्ताव ना श्र न दो व्य८्जनाक्तरोंसे ही जिनका सारा शरीर निर्मित हुआ है 1 १४ वा श्लोक ऐसा है जिसका प्रत्येक पाद भिन्न प्रकागके एक- एक अक्तरसे वना है और वे अत्तर हैं क्रमशः य न म त । साध ही तितोतिता तु तेतीत नामका १३वां श्लोक ऐसा भी हे जिपघके सारे शरीरका निर्माण एक ही तकार अक्षरसे हुआ है । इस प्रकार यह ग्रन्थ शब्दालक्वार अधोलडा र ओर चित्रा- लड्ारके अनेक सेद-प्रमेदोंसे अलंकृत है और इसीसे टीकाकार महोदयने टी रके प्रारभमें हो इस कृतिको समस्तगुणगणोपेता विशेषणके साथ सवर्लिकारभूषिता प्रायः सब अलकारोंसे भूषित लिखा है । सचमुच यह गूढ़ ग्रन्थ श्रन्थकारसहो द य के अपूवे काव्य-फौशल अद्भुत व्याकरण-पारिडत्य और अद्धितीय शब्दाधिपत्यको सूचित करता है । इसकी दुर्बोधताका उल्लेख टीकाकारने योगिनामपि दुष्करा --योगियोंके लिये भी दुगस कठिनतामे घोधगम्य --विशेषशुके द्वारा किया है और साथ ही इस कृतिको सिदूमुणाधारा उत्तम गुणोंको आधार भूत बतलाते हुए सुप्चिनी भी सूचित किया है और इससे इसके झंगोंकी कोमलता सुरभिता श्र सुन्दरताका भी सहज सूचन हो जाता है जो अन्थमे पद पदपर लक्षित दाती है। ग्रन्थरचनाका 3दूदेश्य इस भ्रन्थकी रचनाका उद्देश्य ग्न्थके प्रथम पथमे आागसां जये वाक्यके द्वारा पा्पोंको जीतना बतलाया हर १. दोनों पद्य न० श१ श्र शश पश 8३ डे 6७ १०० १०६४६ ३॥




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