लोकविजय - यन्त्र | Lokvijay Yantra

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Lokvijay Yantra  by डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री - Dr. Nemichandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना ज्योतिषशास्त्रकी व्युत्पत्ति-- ज्योतिपां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रम अर्थात्‌ सूर्यादि हू और कालबोधकशास्त्रकें रूपमे की गयी है । इसमें प्रधानत प्रह नक्षत्र धूमकेतु आदि ज्योति पदार्थोका स्वरूप संचार परिश्रमणकाल ग्रहण और म्रहस्थिति प्रभुति समस्त सिद्धान्तोंका निरूपण एवं ग्रह-नक्षत्रोंकी गति स्थिति और संचारानुसार शुभाशुभ सूचक फलोंका प्रतिपादन किया जाता हैँ। कुछ मनीषियोंका अभिमत है कि नभोमण्डलमें स्थित ज्योति सम्बन्धी--विपयक विद्या ज्योतिविदया है । इस विद्याका विदलेषण और विवेचन जिस शास्त्रमें निवद्ध रहता है बह ज्योतिषशात्त्र है। इस ज्योतिषशास्त्रका विकास इस देशमें क्रमश हुआ है । अतः लोकविजययन्त्र का वर्ण्य॑ विपय उसका महत्व एवं उसके रचनांकालपर विचार करनेके पूर्व ज्योतिप-सिद्धान्तोंके विकासपर विचार करना आवश्यक है । ः भारतीय ज्योतिष सिद्धान्तोंका विकास भारतीय ज्योतिप सिद्धान्तके अन्तर्गत स्कन्धत्रय--सिद्धान्त संहिता और होरा अथवा स्कन्थधपश्नक-- सिद्धान्त होरा संहिता प्रइ्न और शवुन ये पाँच अंग माने गये हैँ । यदि इस विराट पश्चरकन्थात्मक परिभापाका विध्छेपण किया जाय तो आजका मनोविज्ञान जीवविज्ञान पदार्थविज्ञान रसायनविज्ञान चिकित्साविज्ञान भू गर्भविज्ञान वनस्पतिविज्ञान इत्यादि इसके अन्तर्गत समाविष्ट हो जाते हैं । आरम्भमे ज्योति पदार्थो--ग्रह नक्षत्र तारों आदिके स्वरूपर्विज्ञान तक ही ज्योतिपकी विपय-सीमा निर्धारित थी । जब सृष्टिकि आदिमें मनुष्यकी दृष्टि सूर्य और चन्द्रमा पर पड़ी तो उसने इनसे भयभीत होकर इन्हें देवत्व रूप प्रदान किया और दैवी शक्तिक्ें रूपमें इनका अध्ययन और मनन प्रारम्भ किया । पर आगें चलकर विज्ञानके रुपमें ज्योतिषका अध्ययन प्रारम्भ हुआ । भारतीय ज्ञान-विज्ञानका आकर-ग्रन्थ वेद है । वैदिक संहिताओं में ज्योतिप-विपयक चर्चा सुत्ररूपमें उपलब्ध होती है । संहिंताओंकी भमेक्षा दातपथ ब्राह्मण तैत्तिरीय ब्राह्मण ऐतरेय ब्राह्मण बृहूदारण्यक भादि ग्रस्थोंमें ज्योतिपके सिद्धान्त अधिक विकसित रूपमें प्राप्त हैं। वेदोंके पश्चात्‌ पइवेदाज़में ज्योतिपको स्वतन्त्र स्थान प्राप्त हुआ और व्यावहारिक एवं शास्त्रोय इन दोनों दुष्टिबिन्दुओंस ज्योतिप-सिद्धान्तोंका प्रतिपादन होने लगा । दिनकी चर्चा और अन्य कालबोधक अवयव नऋग्वेदमें दिनको केवल व्यवहार-निर्वाहके लिए समयरूपमें माना गया है किन्तु ब्राह्मण और आरण्यकोंमें दिनका विवेचन ज्योतिपकी दृष्टिसि किया गया है। दिनकी वृद्धि कैसे और कव होती है? वह कितना वड़ा होता है ? वृद्धि-ह्लासका मध्यम मान कितना है ? और स्पप्ट मान आनयनके लिए किस प्रक्रिया विधिका उपयोग करना चाहिए ? आदि विपयोंका निरूपण विद्यमान है । कालवोधक अवयवों में त्रुटि लव क्रान्ति आदि सुदंमतर अवयवोंका विवेचन भी प्राप्त होता हैं । दिनगणनाकी प्रक्रियाके साथ सात्रन चान्द्र- सौर आदिके स्वरूप और आनयन-प्रक्रियाका कथन भी संहिताग्रन्थोंगें उपलब्ध है। दैनिक कार्योके सम्पादनार्थ अहोरात्र के घट्यात्मक पलात्मक विपलात्मक मानोंकी विधियाँ भी त्रग्वेदके अनेक मन्त्रोंसे ध्वनित होती हैं। यज्ञ-यागादि घामिक क्रियाओंके सम्पादनार्थ समयके सूक्ष्म अवयवोंका उपघोग किया जाता था । कुछ




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