मेरी मुक्ति की कहानी | Merii Mukti Kii Kahaanii

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Merii Mukti Kii Kahaanii by अमरचन्द्र - Amarchandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेरी मुक्तिकी कहानी ११ शिक्षा देनेका काफी वक्‍ततक नहीं मिलता था, दमे सदा इस बातपर खीभ, रहती थी कि हमारी तरफ काफी ध्यान नहीं दिया जा रहा है । यह बड़े ही ताज्जुबकी बात थी, पर इसका समझना मुश्किल न था | दमारी आंतरिक इच्छा तो यह थी कि अधिक-से-अधिक धन और प्रशंसा प्राप्त दो। इस मतलबको हल करनेकेलिएः हम बस किताबें ओर गअखबार लिख सकते थे | हम यही करते थ । पर यह फिजूलका! काम करने और यह आश्वासन रखनेकेलिए. कि दम बड़े महत्त्वपूर्ण लोग हे, हमं अपने कार्मोकी उचित ठहरानेवाल एकमतकी आवश्यकता थी। इसलिए हम लोगोंके बीच यह मत चल पड़ा : “जितनी बातोका अस्तित्व है वे सब ठीक हैं। जो कुछ है उस सबका विकास होता है । यद विकास संस्कृतिके जरिये होता हे और मसंस्कतिकी माप किताबों ओर अखबारोंके प्रचारसे को जाती है। और चू कि हमको किताबें और अखबार लिखनेसे धन और सम्मान मिलता है, इसलिए हम सब आदमियोंसे अच्छे और उपयोगी हैं ।' अगर सब लोग एक रायके होत तो यद मत ठीक माना जा सकता था, पर हममेंसे हरएफ आदमो, जो विचार प्रकट करता, दूसरा सदा उसके बिलकुल विरोधी विचार प्रकट करता था, इसलिए हमारे मनम चिता पैदा हानी चाप थी । पर हमने इसको उपक्ता को । लोग हमको धन देत थ श्रौर श्रपने प्के णोग हमारी तारीफ करते थ; इसलिए हममेसे दर एक श्रपनेको ठाकर समभता था । आज मुझे साफ-साफ मालूम पड़ता है कि यह सब पागलखाने-जेसी बातें थीं; पर उस वक्त मुभे सिफ इसका घु धला आभास था और जैसा कि सभी पागलोंका कायदा है, में अपने सिवा और सबको पागल कहता था।




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