शूद्रों का प्राचीन इतिहास | Shoodron Ka Prachin Itihas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राचीन भारत की सामाजिक व्यवस्था का आधुनिक अध्ययन ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रयासों से आरंभ हुआ । कंपनी एक विदेशी जाति की संव्यवस्थाओं से परिचित हुए बिना उस पर शासन सहीं कर सकती थी । भारत के आरंभिक सामाजिक इतिहास की दृष्टि से जिन आंग्ल रचनाओं का कुछ महत्व है उनमें से एक है : अ कोड आफ जेंटू लाज (1776); जिसकी भूमिका में बताया गया है कि “भारत के व्यापार और बंगाल में स्थानीय सत्ता की स्थापना' के लाभ तभी कायम रह सकते हैं जब 'उस देश की उन मौलिक संव्यवस्थाओं को अपना लिया जाए तो विजेताओं के कानूनों और हितों के प्रतिकूल नहीं हैं ।” मनुस्मृति के अनुवाद की भुमिक्ा (1794) में आधुनिक भारतीय विद्या (इंडोलोजी ) के जन्मदाता सर विलियस जोंस ने लिखा है कि यदि इस नीति का मनुसरण किया जाए तो “करोड़ों हिंदू प्रजा” का 'सुनिर्दिष्ट श्रम” “ब्रिटेन की श्रीवृद्धि में सहायक होगा” ।* चार वर्ष बाद. इन स्रोतों के आधार पर कोलब्रूक ने 'एन्यूसरेशन आफ इंडियन क्लासेज' पर निबंध लिखा ।* उसके अनुसार भारत का सामाजिक वर्गीकरण अत्यंत महत्वपूर्ण, विशिष्ट संब्यवस्था है ।* उसके शीघ्र ही बाद अपनी पुस्तक दि हिस्ट्री आफ इंडिया (1818) में मिल ने वर्ण व्यवस्था का विवरण प्रस्तुत करने के लिए इन स्रोतों का उपयोग किया । शुद्रों की आशक्तताओं की चर्चा करते हुए वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हिंदुओं में जातिजन्य पराधीनता की विभीधषिका किसी भी अन्य समाज की अपेक्षा अधिक विनाशात्मक थी ।” उसने यह भी कहा कि हिंदू समाज की यह वीभर्सतता अभी भी बनी हुई है । किंतु इन्हीं स्रोतों के आधार पर एलफिस्टन (1841) का निष्कर्ष था कि “शुद्रों की स्थिति कुछ प्राचीन गणराज्यों के लोक- दासों की स्थिति से अच्छी थी । उसका ख्याल था कि शुद्र मध्य युग के कृषि दासों या अन्य पराश्रित वर्गों से, जिनसे हम परिचित हैं, अच्छी हालत में तो अवश्य थे।* उसको यहू भी विचार था कि उसके समय वैसे पराश्रित वर्ग अब चिद्यमान नहीं थे ।7 इसमें संदेह नहीं कि बहुत सी अति पुरातन: सामाजिक प्रधाएं उननीसवीं




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