आदि गुरु शन्कराचार्य | Aadi Guru Shankeracharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रातःकाल का समय था । सूर्य अपनी सुनहरी किरणों का जाल फैलाता हुआ अंधकार दूर करने का यत्न कर रहा था। बालशंकर अपने गुरु की आज्ञा से भिक्षापात्र संभाले भिक्षा लेने के लिए एक ब्राह्मण के द्वार पर खड़ा हो गया । ब्राह्मण अधिक निर्धन था, वह भी भिक्षा मांगकर निर्वाह करता था । उसकी पत्नी ब्राह्मणी धार्मिक सहदय महिला थी । उसने उस तेजस्वी बालभिक्षुक की और देखा, ओर मन-ही-मन सोचा, आज तो....हमारे घर में मुट्ठी भर चावल भी नहीं जिसे इस बाल ब्रह्मचारी के भिक्षापात्र में डाल दूं, मैं कैसी भाग्यहीन हूं....सोचते हुए ब्राह्मणी की आंखों में आंसू छलछला आये, उसने अपने आंचल से आंसू पोंछठकर एक आंवला शंकर के भिक्षापात्र में डाल दिया । (788 ई. या छः सो छियासी (686 ई.) बैशाख शुक्ला तृतीया सौर बारह तारीख के मध्याह्रकाल में विशिष्टा और उसके पति शिवगुरु को शंकर के आशीर्वाद से पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई थी। शिवशंक़र की कृपा से ही विशिष्टा और शिवगुरु को पुत्र का वरदान मिला था । इस कारण उन्होंने अपने पुत्र का नाम शंकर रख दिया था । शिवगुरु अधिक समय तक अपने पुत्र की बाललीला न देख सके, अधेड़ आयु में पुत्र का मुंह देखा था, मन के अरमान पूरे न कर सके, शंकर को विशिष्टा को सौंपकर स्वर्ग सिधार गए। तीन वर्ष में ही बालशंकर ने अनेक धर्मगंधों को सुनकर ही कण्ठस्थ कर लिया था । पांच वर्ष के शंकर हो गए तब विशिष्टा ने अपने पुत्र का उपनयन संस्कार कराकर गुरु के समीप विद्या अध्ययन के लिए भेज दिया था । वह अपनी मातृभाषा पढ़ चुका था । पांच वर्ष की आयु में शंकर ने रामायण, महाभारत, पुराण अनेक शास्त्रों आदि गुरु शंकराचार्य 11




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