मेरे प्रिय निवन्ध महादेवी | Mere Praiy Nibandh Mahadevi

Mere Praiy Nibandh Mahadevi by श्री महादेवी वर्मा - Shri Mahadevi Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फितु नदी के नाम पर उसबा कोई अधिकार नहीं रहा । के सबध में यह और भी अधिक सत्य है क्योकि बहू ऐसी नदी है जिसकी गति अनत है। वह विशेष देश काल जलवायु में विकसित मानव- समूह की व्यक्त आर अव्यकत प्रचूत्तियी का परिप्कार वर्ती है और उस परिप्कार से उत्पन्न विशेषताओं को सुरक्षित रखती है । इस परिष्कार का क्रम अवाध और निरतर है कयोकि मनुष्य की प्रवृत्तिया चिरतन है पर मनुष्य अजर-अमर नहीं । एक पीढ़ी जब अतीत के कोहरे म छिए नाती है तब दूषरी उसका स्थान ग्रहण करने के लिए बालोक-पथ में आती है। महू नवीन पीढ़ी मानव-सामान्य अतश्चेतना की अधिकारी भी होती है और अपने पूर्ववर्तियो की विशेपताओ की उत्तराधिकारी भी परतु इन सबका उपयोग उसे बदली हुई परिस्थितियों मे करना पड़ता है । अनायास प्राप्त चेभव का ज्ञान यदि उसे गये से विक्षिप्त बना देता है तो उसका गतब्य ही खो जाता है बौर पदि एवं निश्चित दियिलता उत्पन्न वर देता है तो उसकी गाता ही समाप्त हो जाती है । महान और विकसित इसलिए नहीं नप्ट हो गईं वि उनमे स्वभावत क्षय के कीटाणु छिपे हुए थे बरन्‌ अदयरीरी होते-होते इसलिए विलीन हो गई कि उनकी प्राण-प्रतिष्ठा के लिए जीवन कोई आधार ही नही दे सका 1 प्रकृति के अणु-अणु के सबंध में मितव्ययी मनुष्य ने अन्य सनुष्यो के असीम परिधम से अर्जित ज्ञान वा कैसा अपल्मय किया हैं यह कहने की आवश्यकता नहीं । मारतोय सस्कृति का प्रदन अन्य सश्कृतियों से कुछ भिन्न है चह थी देमद-कथा ही नहीं वर्तमान की करुण ग्राघा भी है । उसकी विविधता प्रत्येक अध्ययनशोल व्यक्ति को कुछ उलभन मे डाल देती है। सस्कृति विकास के विविध रूपों की समन्ययार्मक सम्टि है और भारतीय सस्कृत्ति विविध सस्कृतियों की समन्वयात्मक है । इस प्रकार इसवें मूल तंत््व को समभने के लिए हम अत्यधिक उदार निष्पक्ष और व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता रहती है । परिवर्तनदील परिस्थिहियों के बोच भे जीवन को विकास की ले जाने बाली किसी भी सस्कृति मे मादि से अत तक एक विचारधारा व प्राधान्य स्वाभाविक नहीं । कर भारतीय सस्कृति तो शताध्दियो को छोड़ सहस्राल्दियी तक व्याप्त तथा एक कोने सम सीमित न रहकर बहुत विस्तुत्त भू भाग तब फैली हुई है । उसमे एक सीमा से दूसरी सीमा तक आदि से मत तक एक ही धारा वी प्रधानता या जीवन का एक ही रूप मिलता रहे ऐसी माशा परना जीवन वो जड़ मान लेना है । शारतीय सस्कृति नि्िचत पथ से बाद छाटवर सिवाली हुई नट्र नहीं बहू तो अनेव स्रोतों को साथ ले अपना तट बनाती और पथ निष्चित करता हुई बहने वाली स्ोनस्विनों है। उसे अधवार-मरे गत मे सस्कृति वा प्रदन | १७




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