बुद्ध - वचन | Buddha - Vachan

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भदंत आनंद कौसल्यायन -Bhadant Aanand Kausalyayan

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महास्थविर ञानातिलोक - Mahasthivir Jnanatlok

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बन ९ न छानी का निरोध होता है। इस प्रकार इस सारे के सारे दुख स्कन्ब का निरोध होता है।” (पृ० ३०) तव प्रश्न होता है कि यदि यथाथं मे कोई दु ख को भोगता है ही नही, तो फिर दु ख से मुक्ति का प्रयत्न व्यथ ? हाँ, सचमुच यदि हमे यह यथार्थ॑- दृष्टि उपलब्ध हो जाए कि “जीव-आत्मा' नाम की कोई वस्तु नही, यह केवल हमारे अहड्>ार का एक सूक्ष्म प्रतिविम्ब है, अवणेप है और हो जाए हमारे इस अहकार का सर्वथा नाश, तो फिर हमे दुख से मुक्त होने का प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं । उस अवस्था मे न दु ख रहेगा, न दुख का भोकता, न प्रदन की गुजा- यश रहेगी न उसके उत्तर की। क्या यह जो दुख का एकान्तिक निरोध है, जिसे निर्वाण कहते है. जीते जी प्राप्त किया जा सकता है * हाँ, इसी छ फीट के शरीर' में प्राप्त किया जा सकता हैं। “'भिक्षुओ, आदमी जीते जी निर्वाण को प्राप्त करता है, जो काल से सीमित नही, जिसके बारे मे कहा जा सकता हूँ कि 'आओ और स्वय देख लो , ' जो ऊपर उठाने वाला है, जिसे प्रत्येक बुद्धिमान आदमी स्वय प्रत्यक्ष कर सकता हें। “भिक्षु, जब शान्त-चित्त हो जाता है, जब (वन्धनो से ) विल्कुल मुक्त हो जाता है, तब उसको कुछ और करना बाकी नही रहता । जो काय्यें वह करता है, उसमें कोई ऐसा नही होता, जिसके लिए उसे परचात्ताप हो।” इस प्रकार का अहंत्व-प्राप्त भिक्षु जब दरीर छोडता है, तब उसके पॉच स्कन्धो का क्या होता है? जिस कारण से उसका पुनर्जन्म होता, उस (तुष्ण-अविद्या ) के नप्ट होने के कारण उसका पुनर्जन्म नही होता । ठीक उसी तरह जिस तरह बिजली का मनका ($छा10८1) ऊपर उठा देने से बिजली की धारा (16८1८ ८ए५1८०६) रुक जाती है और वल्व बुझ जाता है, वैसे ही तृष्णा की धारा का निरोध होने से यह जो जन्म- मरण रूपी दिया जलता रहता है, वह वुझ जाता है। हम विजली के उदा-




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