जैन समाजका हास क्यों | Jain Samaj Ka Has Kyo

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ जैन-समाजका हास क्यों ? न ^ न ननन পাপা সত की तथा शुद्रकी कन्यासे विवाह कर सकता दै, कत्रिय श्रपने वकी तथा ` वेश्य और शुद्रकी कन्यासे विवाह कर सकता है और ब्राह्मण अपने वणं की. तथा शेष तीन वर्णोकी कन्या्रोसे विवाह कर सकता है । ছলনা আদ্র कथन होते हुए भी जो लोग कल्पित उपजातियोंमें (अन्तर्जातीय) विवाह करने धमं-कम॑की हानि समते है, उनके लिये क्या कहा जाय ! जैनग्रंथोंने तो जाति-कल्पनाकी धज्जियाँ उड़ादी हैं । यथा-- | : अनादाविह संसारे दुर्वारे मकरध्वजे कुमे च कामनीमूले का जातिप्रिकल्यना ॥ अर्थात्‌--इस अनादि संसारमें कामदेव सदासे दुर्निवार चला आरहा- है । तथा कुलका मूल कामनी है । तव इसके श्राधार पर जाति-कल्पना करना कहाँ तक ठीक है १ तात्पयं यह है कि न जाने कब कौन किस प्रकार से कामदेवकी चपेटमें आगया. होगा १ तब जाति या उसकी उच्चता नीचताका अभिमान करना व्यर्थ है। यही बात गुणमद्राचायने उत्तर पुराणके पर्व ७४ में और भी स्पष्ट शब्दोंमें इस प्रकार. कही है---. वर्णाश्त्याविमेदानां देहेडस्मिन्‍्न च दर्शानात्‌ | बाह्मरयादिषु शूद्राचैयंमधानग्रवतंनान्‌ ॥४६९॥ अर्थात---श्स शरीरमें वण या आकारसे कुछ भेद दिखाई नदीं देता है । तथा ब्ाक्मण-क्षत्रिय-वैश्यों में शुद्रोंके द्वारा भी गर्भाधानकी प्रवृति देखी जाती है ।. तब कोई भी व्यक्ति अपने उत्तम या उच्च वर्णंका श्रमिमान कैसे कर सकता हे १.तात्पयं यह है कि जो वर्तमानमें सदाचारी है वह उच्च है और दुराचारी है वह नीच है!




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