मनोरन्जन पुस्तकमाला ४ | Manoranjan Pustakmala - IV

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Manoranjan Pustakmala - IV by श्यामसुंदर दास - Shyam Sundar Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६), हर की कोई चीज दिखाती हुई-“है हैं! चह आगया ] श्रय षथा होगा १? . “होगा ष्या ? कोई भूत है जो हमें ला जायगा ? वह भी एक चट्टान है जो सायंकाल की ऊुप्सुट में वृत्तो की आड़ से आदमी सी दिखलाई देती है। ओर यदि आदमी भी हो तो डर क्या है ? क्या तू किसी और की गोद में हे जो इतनी शर्माती है १ ” । “आग लगे और को | साड़ में जाय ओर } पस्तु क्फ ऐसी खुली जगद्द में तुम्हारे पास बेठ कर बाते करने में शोभा है? भले घर की भागिनी का अपने मालिक से भी समय पर अपने कमरे ही में बातचीत करना अच्छा है । प्ले बीची फो बगल- मे दवाकर सैर करने में लाज ही है । में तम्दारे माँले में आरा. गई। बड़ी चूक हुईं। अब कभी तुम्दारे साथ ऐसे हवा खाने नहीं आऊगी।”? #त्ष आवेगी तो यो ही घर में यलगल कर मर जायगी! यह आवू है। यहां परिश्रम करने और चादर करी, दवा खाने ष्ट से जीवन है, मेम साहयो को देख वे फैसे सुख, से विचरती हैं। कुलचघू की ल्या जैसी तममे है बेसी उनमें भी दे कितु देख चाहर की हवा खाने ओर परिश्रम फरने से उनकी संतान कैसी इृए पुण्ठ और चलिष्ट होती है 1” “४उनका खुख उन्हें ही मुबारिक रहे। हम पर्दे से रहने घालियाँ को ऐसा सुज् नहीं चाहिप्स। हम अपने घर के धंदे हरे




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