जननी और शिशु | Janani Or Shishu

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Janani Or Shishu by बाबू सूरजभानुजी वकील - Babu Surajbhanu jee Vakil

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ चिक्तकी प्रसन्नता 'दुर क्यों जाते हो, एक व्याहके ही श्रवसर पर देख लो कि जब किसी स््रीके वेदे वेटीका व्याह होता है तव वह ब्याह पस्ररनेके दिनसे सव काम निपट जानेके दिनतक अपने आप कोश्रौरः सभो स्री पुरर्पौको दर्पित श्रौर श्रानन्दित रनेकी ही कोशिश करती रहती दै । इन दिन यद्यपि उसपर सव तरफसे सब प्रकारकी चढ़ाई रहती है श्रौर चारों तरफसे लाओ लाओकी ही पुकार होती है और उसके सभी रिएते- दाए, सारी विरादरी यहाँ तक कि उसके कमीन और हाथ पसारनेवाले मंगते भी वात बातमें उसका হীন निकालते रदते हैं, मुँह पर ही खोटी खरी खुनाते हैं ओर रूस रूसकर अलग बैठ जाते है, पर जिसके উই वेटीका व्याह होता है वह सबकी सहती है और मनकों यही सममभाती' रहती हे कि तुभे किसीका बुरा नहीं मानना चाहिए; बल्कि अपने भाग्यको ही सराहना चाहिए जिससे हमारे यहाँ यह आनन्द का कारज पसरा और इन लोगोंको ऐसी वातं वनाने श्रौर रुसकंर अलग बैठ जानेका मौका मिला | ऐसा विचार करके बह हर बातमें आनन्द ही मनाती है और व्याहकी खुशीमें मञ्न रहकर किसी बातका बुरा नहीं मानती | यहाँतक कि हर तरह दूसरोंका ही कछर होनेपर भी आपही उनको मनाती फिरतो है और सो खुशामद करके उनको मनाकर ही लाती है। उन दिनो वह खुशीमें ऐसी भरपूर रहती ` दै कि दुल देनेंचाली वात भी उसको सुख ही देनेवाली दिखाई देने लग जाती हैं। इसी वासते चह घटियासे घटिया বিপাক আসামী भी हाथ जोड़ने ओर बिना कसर भी अपना कसर मानते रहने और खुशामद करके उनको मना मनाकर लानेमें ही श्रपनी बड़ाई मानती है ओर खुशीके मारे अंगर्म फूली नहीं 'समाती है




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