सिद्धान्त और अध्ययन | Siddhant Or Adhayayan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
274
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)काव्य की आत्मा ११
समन्व॒य- काव्य के लिए भाव और अभिव्यक्ति दोनों ही
अपेक्षित है । अनकर, बक्रोक्ति, रीति ओर ध्वनि भो अभिव्यक्ति के
सौन्दर्य से अधिक सम्बन्धित है। अलकझ्कार शोभा को बढ़ाते है, रीति
शोभाका अङ्ग है किन्तु पूर्ण शोभा नहीं, वक्रोक्ति मे काब्य को
साधारण वाणीसे प्रथ करने वाली विलक्षणता पर श्रधिक. बल
दिया गया है किन्तु स्वाभाविकता श्रौर सरलता की उपेक्ता की ग
है । कुन्तक ने स्वभावोक्ति को अलङ्कार नदीं मानाहै। भेया कहि
बादेगी चोटी अथक भेया दाङ मोहि बहन खिजावनः को स्वाभा-
विकता पर सौ-सौ अलङ्कार न्योद्ात्रर किये জা सक्ते है।
ध्वनि और रस सम्प्रदाय की प्रतिष्ठन्द्रिता अवश्य है किन्तु
उनकी प्रतिद्वन्द्िता इतनी बढ़ी हुई नहीं है कि समन्वय न हो सके |
आचायों ने स्थयं ही उसका समन्वय कर लिया है। ध्वनि का विभा-
जन करते हुए तीन प्रकार की ध्वनियोँ मानी गई हैं, वस्तु ध्वनि, अल-
छूर ध्वनि ओर रस ध्वनि ।
इन तीनो भेदों मे रसध्वनि को जो असंलक्ष्यक्रम उ्यङ्ग्य
ध्वनि के अन्तगत है अधिक महत्व दिया गया है। रस में ध्वनि की
तात्कालिक सिद्धि है । उसमे उ्यडग्याथ ध्वनितं होने की गति इतनी
तीत्र होती है कि हनुमानजी की पूंछ की आग ओर लक्षा-दहन कीमभॉति
पूवौपर करा क्रम दिखाई ही नहीं देता है। रस ध्वनि को विशिष्टता
देना रस सिद्धान्त की स्वीकृति है। ध्वनिकार ने कहा है कि व्यकग्य
व्यक्षक भाव के विविध रूप हो सकते है। किन्तु उनमे जो रसमय
रूप है उस एकमात्र रूप मे क्रवि को अवधानवान होना चाहिए; अर्थात्
सावधानी के साथ श्रयन्नशोत्र होना वचःछनीय है, देखिए --
व्यड ग्य-व्यज्ञक भावेडस्मिन्विविधे सम्भवत्यपि |
रसादिमये एकस्किन् कवि स्थादवधानवान ॥
ध्यनिकार ने ओर भी कहा है कि जेसे वधन्त में वृक्ष नये
ओर हरे-भरे दिखलाइ देते हैं वेसे ही रस का आश्रय ले लेने से पहले
देखे हुए अर्थ भी नया रूप धारण कर लेते हैं।
दृष्प्रबों अपि हार्थाः काव्य रस परिग्रह्मत् ।
सर्वे नवा इवाभान्ति मधुमास इव हुमा. ॥
मम्पटाचांय ने भी जिन्होने कि ध्वनि के सिद्धान्त को मान कर
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