तपते हुए दिनों के बीच | Tapte Hue Dino Ke Beech

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Tapte Hue Dino Ke Beech by सुभाष रस्तोगी - Subhash Rastogi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यात्रा-पंखुरी से नदी तक मैंने म्जलि में जल भर कर दिया जब तुम्हें अरध्यं तब तुम सुरजमुखी की तरह पंखुरी-पंखुरी खिल उठीं फिर देखा कि सहसा उन्हीं पंखुरियों के बीच से एक नदी उग्र आई है/दो होठों वाली गोरी नदी और उस दी होठों वाली गोरी नदी की लहरियां मुझ में परत-दर-परत यभ मचलने को | बेचेन हो रही हैं क्यों अंजलि में उगती है दो होठों वाली गोरी नदी ? श्रौर क्यों उसकी लहरियां मुक मे परत-दर-परत)।मचलने को बचेन हो उठती है झौर फिर क्‍यों लगती है गोरी नदी के जल में आग ? इतना श्रथाह जल क्यों किनारे में समा जाता है ? क्यों उमड़ते हैं इतने वादल ? दो होठों वाली गोरी नदी के जल में क्यों लगती है ग्राग ? क्‍यों उगती है तुम्हारी खूशबूदार आंखें मेरे आस-पास और क्यों मेरी अ्रांखों में प्यास की एक श्रवुभः पहचान जगा कर छोड़ देती है देहराग ! तपते हुए दिनों के बीच / ए




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