श्री योगसार | Shri Yogsaar

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Shri Yogsaar  by ब्रह्मचारी सीतलप्रसाद जी - Brahmchari Seetalprasad Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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योगलार टौका [ ३ सर्व कर्म मल जलाकर सिद्ध होता है। ऊध्वं गमन स्वभाव से लोक के अग्म में जाकर सिद्ध आत्मा ठहरता है। घम्म द्रव्य के बिना अलो- काकाश में गमन नहीं होता है। सर्व ही सिद्ध उस सिद्ध क्षेत्र में अपनी- अपनी सत्ता को भिन्न-भिन्न रखते हैं। सर्व ही अपने-अपने आनन्द में मगन हैं। वे पूर्ण वीतराग हैं। इससे फिर कभी कर्मबंध से केधते नहीं ! इसीलिए फिर संसार अवस्था में कभी आते नहीं। वे सवे संसार के क्लेशों से मुक्त रहते हैं। वे ही निर्वाण प्राप्त हैं। सिद्धों के समान जो कोई मुमुक्षु अपने आत्मा को निरचय से शुद्ध आत्म द्रव्य मान कर व राग-द्वेष त्याग कर उसी निज स्वरूप मे मगन हो जाता है वही एक दिन शुद्ध हो जाता है । ग्रन्थकर्ता ने सिद्धों को सबसे पहले इसीलिए नमस्कार किया है कि भावों में सिद्ध समान आत्मा का बल आ जावे । परिणाम शुद्ध व वीतराग हो जावे । शुद्धोपयोग मिश्ित शुभ भाव हौ जावे, जिससे विध्नकारक कर्मों का नाश हो व सहायकारी पुण्य का बन्ध हो। সীল उसे ही कहते हैं जिससे पाप गले व पुष्य का लाभ हो। मजूला- चरण करने से शुद्ध आत्मा की विनय होती है। उद्धतता का व मान का त्याग होता है । परिणाम कोमल होते हैं । शांति व सुख का झल- काव होता है। यह अध्यात्मीक ग्रन्थ है--आत्मा का साक्षात्‌ सामने दिखाने वाला है। शरीर के भीतर बैठे हुए परमात्मदेव का दर्शन कराने वाला है। इसलिए ग्रन्थकर्ता ने सिद्धों को ही पहले स्मरण किया है। इससे झलकाया है कि सिद्ध पद को पाने का ही उद्देश है। ग्रन्थ लिखने से और किसी फल की वांछा नहीं है। सिद्ध पद का लक्ष्य ही सिद्ध पद पर पहुंचा देता है । परम योगी - श्री कुन्दकुन्दाचार्यजी ने भी समयसार ग्रन्थ की आदि भें सिद्धों को ही नमस्कार किया है। वे कहते है-- वंदित्तु सब्ब सिद्धे धुवमचलमणोवर्म गदि पत्ते। वोच्छामि समय पाहुड मिणमो सुदकेवली भणिदं ॥१॥




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