विधि मार्ग प्रपा | Vidhi Marg Prapa

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Vidhi Marg Prapa  by मुनि जिनविजय - Muni Jinvijay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संपादकीय प्रखावना प्‌ ३९ वें द्वारमें, “तीर्थचाज्षा' करने वाछेको किस तरह बात्राविणि करणा चाहिये और जो थाजामिसिस संघ भीकाकना चाहे उसे किस विधिसे प्रस्थामादि कृत्य करने चाहिये-इस विकयका उपयुक्त विधान किया বাছা ই। इसमें संघ मीकाकने वाकेको किस किस प्रकारकी सामप्रीका संग्रह करना चाहिये ओर याज्रार्थियोंकों किस किस प्रकारकी सहायता पहुंचाना चाहिये-इृत्यादि बातोंका भी संक्षेप्में पर सारभूत रूपमें शातत्य उल्लेख किया गया है। ४० में द्वारमें, पर्वादि तिथियोंका पान किस नियमसे करना चाहिये, इसका विधान, ग्रभ्थकारने अपनी सामाचारीके अनुसार, प्रतिपादित किया है । इस तिथिव्यवद्दारके विषयमें, जुदा जुदा गच्छके अशुगायियोंकी शी ची माभ्वता है । कोई उदय विथिको प्रमाण मानता है, तो कोहै बहुमुक्त तिथिको प्रादय कहता है । पाक्षिक, खातुमौिक ओर सांवस्सरिक प्के पाकनके भिषयसे भी इसी तरहका गच्छवासिर्थोका पारस्यरिक वडा मतमेद्‌ दै । इस मतमेदको छे कर पभावीन काचे जैन संप्रदायो परस्पर कितनाक विरोधमावपूण भ्वबहार खशा भावा दिखाई देता है। श्रीजिनप्रभ सूरिने अपने इस प्रभ्ये, उसी सामा जारीका प्रतिपादन किया है जो खरतर गच्छमें सामान्यतया माल्य है । ७१ वें द्वामें, अंगविद्यासद्धिकी विधि कही गई है। यह “अंगविशा' नामक एक शाख रहै ओ आगममें नहीं गिना जाता, पर इसका स्थान आगमके जितना ही प्रधान माना जाता है। इसछिये इसकी साधनाविधि यहांपर स्वतंत्र रूपसे बताई राई है। यह विधि प्रन्थकारने, सैद्/म्तिक विनयथस्द्सूरिके डपदेशसे ऋधित की है, ऐसा इसके अंतिम उलछेखमें कद्दा है । इस प्रकार, विधिप्रपामें प्रतिपादित मुख्य ४१ द्वारोंका, यह संक्षिप्त विमयनिर्देश है । इस निर्देशके वाचमसे, जिशासु जनोंको कुछ कल्पना आ सकेगी कि यह अन्य कितने महत््वका और अलभ्य सामग्रीपूर्ण है । इस प्रकारके अस्य अन्य आचायोके बनाये हुए और भी कितनेक विधि-विधानके अन्थ उपलछड्ध होते हैं, पर थे हस प्रध्थके जैसे कमबद्ध ओर विशद रूपसे बनाये हुए नहीं श्ञात होते । इस प्रकारके प्रन्‍्थोर्मे यह 'कझ्िरोमणि” जैसा है ऐसा कहनेमें कोई भव्युक्ति नष्टं होती । সং भरम्कार जिनप्रभ सूरि कैसे बडे भारी বিজ্ঞান और अपने समयमें एक अद्वितीय प्रभावशाली पुरुष हो गये हैं ছক্কা पूरा परिचय तो इसके साथ दिये हुए उनके जीवनचरित्रके पढनेसे होगा, जो हमारे खेहास्पद धर्मबन्धु बीकानेरनि वासी दृतिहासप्रेमी श्रीयुत अगरचन्दजी और भंवरछालजी नाहटाका लिखा हुआ है। इसलिये इस विषयर्मे और कुछ अधिक छिखनेकी आवश्यकता नहीं है। मे संपादनमें उपयुक्त प्रतियोंका परिचय | इस प्रत्थका संपादन करनेमें हमें सीन हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त हुई थीं- जिनमें मुख्य प्रति पूगाके भाण्झ्श्कर प्राब्यविद्यासशोधन मन्द्रिमें संरक्षित राजकीय प्रन्थसंग्रहकी थी। यह प्रति बहुत प्राथीन और झुद्धमाव है। इसके भन्तमे लिखनेवालेका नामनिर्देश ओर संवतादि नहीं दिया गया, इसलिये यह ठीक ठीक तो नहीं कहा जा सकता कि यह कवकी लिखी हुई है; पर पतन्नादिकी स्थिति देखते हुए प्रायः संघत्‌ १५०० के आसपासकी यह छिखी हरे होगी पेसा संभवित अनुसान किया जा सकता है। हस प्रतिका पीछेसे किसी तज्ज विद्वान यतिजनने खूब अच्छी तरह संशोधन भी किया है और इसलिये यह प्रति झुद्धप्रायः है, पेसा कहना चाहिये । दूसरी प्रति श्रीमात्‌ उपाध्यायव्े भ्रीसुखसागरजी महाराजके निजी संभहकी मिछी थी। पर यह नहे दी लिखी हुईं है और शुद्धिकी इश्से कुछ विशेष उल्लेखयोग्य नहीं है ।




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